तीस दिन मालवीयजी के साथ | Tees Din Malviyaji Ke Saath

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Tees Din Malviyaji Ke Saath by रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(২০) जितना छात्र मुझ्ते उठाना चाहिए था, उतना में नही उठा सका। पहली बाघा तो यह थी कि मालवीयजी अपने जोवन-चरित के लिए अधिक समय नही दे सके । मुझे ऐसा एक भी दित स्मरण नही भाता, जिस दिन उनसे मिलतेवालों का ताँता, सबेरे से लेकर रात्रि के भोजन के समय तक, और कमी-कभी उसके बाद तक भौ, शटा हो । प्रत्येक दिन उनके पास देश और घर्मं को चर्चा करने ओर खुनतेवाडो कौ भोड़ तो छगी ही रहती थी, भिन्न-भिन्न प्रातों के बहुत-से तीथे-यात्री भी, जो काशी-विश्ववाथ फा दर्शन करने जाते थे, विद्या के इस तीर्थ का भी पशेन करने को पहुँच जाते थे 1 मालवीयजी के खुले दरबार में किसी के लिए कभी रोक तो रहती ही नही; वे सुतमर ले कि कोई मिछना चाहता है, यदि बहू उनके निकट तक नहीं पहुँच सकता तो स्वयं उसके पास पहुँच जाते हे । ऐसी दशा में मुझे समय मिलता हो कंसे ? दूसरी बाघा माछवोयजी के स्दमाव कौ थो । उन्होने जीवनमर काम हो काम किया है। वे स्वभाव ही से निरभिमान, विनम्र और विनपी हे । और इस समय तक बहुत-सी बाते वे मूल भी गये हे; ओर जो याद भी हे, उन्हें वे जहाँ जपती व्यक्तिगत प्रशा पति दै वदति वक्ष छोड भौ देते है ) उन्हें मनी व्यक्तितगत्त प्रधसा से सदा जरुचि रही है । अपती विशेषताओं बोर सफठताओं की बाते खुलकर बताने में उन्होंते सदा सकोच किया है। में या अन्य कोई पारवेवर्ती जब उनके कार्यों की प्रशसा करता, तब वे ऊपर की ओर सकेत करके कहते-- “सद उत्नीको कृप का फल ह ।मैतो एक निमित्त मात्रहूं ।” ऐसे निष्कामकर्मी व्यक्ति के सामने तक॑ और कल्पनाएँ रखकर में जो कुछ बिकाछ पाया हूँ, इतने थोड़े समय में मे उसे ही बहुत समझता हूँ 1




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