पहली हार | Pahali Har
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
319
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहली हार
कहते हुए चौहान चल पडे और उम्रगो भरे उस रगमहल में श्राये
जिसमे सोलह शृ गार किये करनाटकी प्रियतम की प्रतीक्षा में भ्राँखे
लगाये अगडाइयाँ ले रही थी ।
प्रियतम को प्रवेश करते देखते ही उसने बडी बडी आँखों को उनकी
प्रोर बढाते हुए कहा-- झ्ाज कहाँ रीक गये थे जो इतनी देर लगा
दी? प्रतीक्षा करते करते हमारी आँखे दुखने लगी ।
पृथ्वीराज-- प्रतीक्षा के बाद जो प्रणय मिलता है, वह तो मुक्ति
से भी सुखद होता है प्रिये ! प्रतीक्षा से तुम्हारी मदभरी अखि में
उत्सुकता की जो मदिरा लहरा रही है उसने तो मुझे मद्यप बना दिया है।
करनाटकी--- बिना पिये ही ऋूमने लगे !
पृथ्वीराज-- धपनी श्राँंखो को तो कुछ नही कहती और हमें शराब
का दोष लगा रही हो ! तुम्हे देख कर तो जड भी भूम उठते है देवागने !
फिर हम तो चातक ठहरे । न जाने तुमने कौनसा इन्द्रजाल फैलाया है
कि हम तो ऐसे फंसे हे जो लाख यत्न करने पर भी नहीं निकल सकते ।
करनाटकौ--- हर पुरुष कुछ दिन नयी स्त्री से प्राय इसी तरह वी
নাত करता है।
पृथ्वीराज-- मुर्झे तो हर पुरष का अनुभव नहीं, सम्नवत तुम
एसी सर्वव्यापक हो जो सबके हृदय को पढ लेती हो ! पर में यहाँ सती
पुरुष के स्वनाव पर शास्त्रार्थ करने नही झाया। में तो रूप वा रस
पीने भ्राया हूँ । नृत्य की घनकार सुनने के लिये मेरे वान कामी थी
तरह শান্ত হী হই ই। भाखं तुम्हे पृतलियो पर विदा वर पलक दन्द
वर सोना चाहती हूं । झ्घर चघरामृत पान वे प्यासे हे। वक्ष तुम्हारे
घालिंगन के लिये भचज रहा है। नजाए तुम्हे लपेट लेना चाहती है।
प्रानो, घौर दटती हूर व्ल दी तरह सृत्तमे चिपट्ती चली उद्रो)
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