जुदाई की शाम का गीत | Judai Ki Sham Ka Geet

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Judai Ki Sham Ka Geet by उपेन्द्र नाथ अश्क - Upendra Nath Ashak

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

Add Infomation AboutUpendranath Ashk

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सपने १३ लेकिन भा तो ऐसे स्वष्त नहीं देखती | अपनी वर्तमान दशा पर ही वह सन्तुष्ट | द्वार पर श्रा जानेवाले हरेक भिखारी के लिए उषके भंडार में कुछ न कुछ मीजूद है--फिर वह बासी रोणे ही या एक कटोरी भर श्राय] इसीलिए जब करु देर पहले छोटे ने श्राकर बताया कि आज चों अहण है ओर नरेन्द्र ने बाहर से आकर इस बात का समर्थन भी कर दिल्ला कि दस अ्रड़तालिस पर अदण लगेगा, तो मा ने जल्दी का शोर मचा दिया कि खाना तत्काल ख़त्म किया जाये ताकि वे नहाकर पूजा के लिए तैयार ही जायें | हसने नहाये बिना जस्दी-जस्दी रोगी ख़त्म की, तब मा ने दिल्ली और दिल्ली के इस एकान्त कोने में बने हुए कार्टरों को कोसते हुए कहां कि इस निगोड़े शहर में दिन-वार, तीज-त्योहार का कुछ मी पता नहीं चलता, आज चाँद-ग्रहरा है, यदि कहीं इस बात का पहले पत्ता लग जाता तो रसोई प्रादि से निषट फर जमुनाजी मे जाकर दो इनकिर्यो ही लगा हेते | इवकियो.. .मै मन ही मन हॉसा...आजीबिका के भँवर ही क्या कम हैं जो किसी दूसरी नदी में जाकर इुबकि्थो लगाने की जरूरत महसूस हो | इसके पानियों से उभरें तो कहीं श्रोर जाकर शोते खगाने' की 3मंग जी में उ3 | श्रौर में कुक्ला अ्रदि करके बाइर जाने को तैयार हुआ | इतनी चाँधनी थी कि धर में बैठे रहना गुनाह करने के बराबर मालूम द्वीता था | फिर कुछ तबीयत भी भारी थी--मेरी भूत के सम्बन्ध में, मेरे नहों बरन्‌ अपने अनुमान से सा ने खाना खिलाया था--ख्याज्ष था कि सब्जी मंडी से खारां या खारी-मीठे सोडे की एक बोतल ही पी श्राऊँगा, जब चलने लगा तो मा ने कहा था कि वहीं से कुछ पैसे भधेते भी लेते आना | मेंने कहा था, “बहुए में पॉच-छै आने जो हैं |” माँ बोली थी, “श्राने नहीं पैसे या अ्धले चाहिएँ | कोई गतां भिखारी ही ্সা আলা ই




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now