ख़्वाजा हैदर अली आतिश | Qhvaajaa Haidar Alii Aatisha

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Qhvaajaa Haidar Alii Aatisha by जानकी प्रसाद शर्मा - Janki Prasad Sharmaमुहम्मद ज़ाकिर - Muhammd Jakir

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मुहम्मद ज़ाकिर - Muhammd Jakir

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऐतिहासिक और सांस्कृतिक वातावरण तथा शायरी और भाषा की परम्परा १५ की शायरी में रूप और सौंदर्य के चित्र भी मिलते थे। राजनीतिक बिखराव और आर्थिक दुर्दशा ने इस प्रवृत्ति में बदलाव ला दिया और दिल्ली के शायरों की भ्रोतिमुलक शायरी के अंतर्वाध्य पक्षों पर इसका सीधा-सीधा प्रभाव पड़ा | उनके स्वभाव में एक विशेष कैफियत पैदा हो गई जिसे उनकी शायरी में अभिव्यक्ति मिली| उनके स्वभाव की इसी कैफियत को 'दिहलवीयत” कहा जाता है। अपने मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की उन्होने जो शैली अपनाई उसमें सहजता, शालीनता, कोमलता और निश्छलता थी। इससे भी आगे सुगमता और मार्मिकता का इसमें विशेष ध्याम रखा जाता था। अर्थ की सम्पन्नता ओर वर्णन शैली की स्वच्छता उनका मुख्य ध्येय था। चिंतन के स्तर पर उनम मदिराःप्रेम ओर फक्कड़पन की झलक भी मिलती थी। इसके साथ-साथ एकेश्वरवाद की शिक्षा और प्रणय-भावना का सहज कितु प्रभावपुर्ण वर्णन भी उनके यौ मिलता ह! उनका सौहार्दं और मानव-प्रेम अगर आम तसबुफ्‌ की देन था तो उस गंगा-जमनी साझा संस्कृति की भी देन था जो मुसलमानों के भारत आगमन के बाद देश में फली-फूली थी। इसमें संदेह नहीं कि फारसी साहित्य इन शायरों के स्वभाव में रचा बसा था। फारसी शायरी की विधा को ही उन्होंने अपनाया था। बल्कि दूसरे शब्दों में उर्दू ने उड़ने के पंख फारसी से ही उधार लिये थे। इसी कारण उर्दू शायरी में ईरानी, अरबी, तुर्की अंतर्कधाओं, उपमाओं और प्रतीकों की प्रचुरता दिखाई देती हे ओर बहुधा फारसी मुहावरों का अनुवाद भी। लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि उर्दू शायर के साहित्य मेँ भारतीयता के तत्व नहीं थे। कुल मिलाकर ही नहीं बल्कि अलग-अलग शायरों की चेतना पर उस दौर की धार्मिक एवं राजनीतिक परिस्थिति से उत्पन्न होने वाले भारत के सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव बखूबी देखा जा सकता है। और उनकी अभिव्यंजना शैली में सहज रूप से भारतीय उपमाओं, प्रतीकों और अंतर्कधाओं को खोजा सकता है। भ्रांति के प्रयोग को ही लीजिए जिसे अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक दिल्ली के उर्दू शायरों (अर्थात्‌ लखनऊ जाने वाले दिल्ली के शायरों से पूर्व के शायर) की विशिष्टता समझा जाता है। इसके विषय में यह बात अब निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है कि यदि अठारहवीं शताब्दी की यहाँ भ्रांतिमुलक शायरी पिछले फारसी शायरों के प्रभाव का परिणाम थी तो साथ ही इसमें हिंदी दोहों का प्रभाव भी सक्रिय रहा था। | दिल्ली में कमोबेश अठरहवीं शत्ताब्दी के भध्य तक जो शायरी अपने उत्कर्ष पर थी, उसमें ऐंद्रिकता भी थी, जो सीधे-सीधे एक पतनशील संस्कृति का प्रतिबिम्ब धा | लेकिन




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