साधना के सूत्र | Shadna Ke Sutra

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Shadna Ke Sutra by अशोक कुमार जैन - Ashok Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्ना के दुत 772 7 काल-सामापिक- हिम, शिशिर, वसन्त, शीष्म, वर्षा, शरद ऋतु में और रत्नि, दिवस वं शुक्लं पक्ष और कृष्ण पक्ष इत्यादिक काल में राग-द्वेष का वर्जन, सो काल-सामयिक है। भव-सामायिक- समस्त जीवो के दुःख न हो ऐसे मैत्नीमाव से तथा शुभ-अशुम परिणामों के अभाव को भाव-सामायिक कहते हैं। वैर-त्याग चिन्तन्‌- सामायिक करने वाला समस्त जीबों मे भैरी धारण करता हआ परम क्षमा को धारण करता रै! कोई जीव मेरा वैरी नही रै, अज्ञानबस उपार्जन किया मेरा कर्म ही. वैरी है। मैने स्वयं .उज्ञान भाव से क्री, मानी, लोमी होकर विपरीत परिणाम कथि । जिस वस्तु-व्य्ति से मेरा अभिमान पुष्ट नहीं हुआ उसकी वैरी माना, किसी ने मेरी प्रशंत्ता-स्तुति नहीं की, उसी को बैरी समझा। मेरा आदर-सत्कार * नहीं किया व उच्च-स्थान नहीं दिया उसको वैरी समझा। किसी ने मेरे दोषों को प्रकट किया उसको वैरी जाना - सो यह्‌ सब मेरी कंषाय से, दुईद्धि से अन्य जीवों में बैर-बुद्धि उपजी है, इसको छोडकर कषमा अंगीकार करता हँ ओर अन्य समस्त जीव मेरा अज्ञान भाव जानकर मुझे क्षमा करें। आत्म व्िन्तन- समस्त दिनि मे प्रमाद के वशं होकर अथवा विषयों मे रागी-द्वेषी পি ০ को धते किया तथा अनर्घ प्रवर्तन किया व सदोष मोजन किया জবা নিলা জীন के प्राणों को पीड़ा पहुँचाई तथा कर्कश-कटठोर मिथ्या বন কু ধলা किसी की विकथा की अथवा अपनी प्रशंसा केरी জজ জে দা জনে धन ग्रहण किया अधवा पर के घन मे लालसा करी




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