दिव्य जीवन ग्रन्थ 2 खण्ड-8 | Divya Jeevan Granth-ii Khand-8

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Divya Jeevan Granth-ii Khand-8 by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनिरिष्ट, दिदच-निदेशनाएं ओर अनिर्देश्य 13 नल सकते हँ जो कि मानव-वीजमेसे उन्मज्जित होनेवाली स्थूछ, शारीरिक आकृतिमे संचारित किये जाते है; यह्‌ कायं जडतत्त्वकी बाह्यतामे भी मूर्तः उसी नियमपर होगा जिसे हम अपने आंतरिक अनुभवमें पाते ह-- क्योकि हम देखते हँ कि अवचेतन स्थूल सत्ता अंतःकरणके मानसिक उपादानोको, विगत घटनाओंकी कछ्पोको, अभ्यासोको, मन भौर प्राणके स्थिर संस्कारोंको, चरित्रके स्थिर रूपोंको अपने अन्दर लिये चलती है, और एक गुद्य प्रक्रियाके द्वारा उन्हं जागृत चेतनाकी ओर ऊपर भेजती है, इस प्रकार वह हमारी प्रकृतिके बहुतसे क्रिया-कलापोंको उत्पन्न या प्रभावित करती है। इसी आधारपर यह समझनेमें भी कोई कठिनाई नहीं होगी कि शरीरके अंग-प्रत्यंगोंकी क्रियाएँ मानसिक क्रियाओको निर्धारित करनेमें क्योकर सहायक होती ह : क्योकि शरीर अचेतन जड्मात्र नहीं है; वहु गृप्ततया- सचेतन ऊर्जाकी रचना हैं जिसने उसमें रूप धारण किया है। स्वयं यह शरीर गुह्य रूपसे सचेतन रहता है; वह्‌, साथ-ही-साथ, एक प्रकट चेतताकी, उस चेतनाकी अभिव्यक्तिका माध्यम भी है जो हमारी स्थूल ऊर्जा-धातुमे उन्मज्जित हुई है और आत्म-संविद्‌ है। इस मानसिक अधिवासीकी गति-विधियोंके लिये शरीरकी क्रियाएँ आवश्यक यंत्र या उपकरण होती हँ; शारीरिक करणको गतिशील करके ही उसके अन्दर उन्मज्जित होता हुञा, विकसित होता हुआ चिन्मय पुरुप अपनी मनो- रचनागको, इच्छा-रचनाओको संचारित कर सकता है और उन्हें जड़तत्त्वमें अपने-आपकी एक स्थूल अभिव्यक्तिमें परिवतितं कर सकता है मनकी रचनाएँ मानसिक आकारसे स्थूल अभिव्यक्िमे आनेमे, करणकी सामथ्यं और उसकी प्रक्रियाओंके द्वारा, कुछ दूरीतक अवश्य ही परिवर्तित होंगी; वह अभिव्यक्ति वास्तविक हो सके उसके पहले उपकरणकी क्रियाएँ आवश्यक होती हैं और वे अपना प्रभाव डालती ही हैँ। शारीरिक करण कुछ दिशाओंमें अपने प्रयोक्तापर प्रभूत्व भी कर सकता है, सक्रिय मन तथा इच्छा नियंत्रण या हस्तक्षेप कर सर्के उसके पूर्व ही वह अभ्यासकी एक शक्तिके द्वारा अपनेमें निवास करनेवाली चेतनाकी अस्वैच्छिक प्रतिक्रियाओंका प्रस्ताव या सुजन भी कर दे सक्ता है। यहु सव इसलिये संभव है कि शरीरकी एक स्वकीय “अवचेतन' चेतना है जिसका हमारी समग्र आत्माभि- व्यक्तिमें एक अपना स्यान है; यहाँतक कि यदि हम केवल इस वाह्य करणपर ही दृष्टिपात करें तो इस निर्णयपर पहुँच जा सकते हूँ कि शरीर मनका निर्धारण करता हैं; किन्तु यह तो केवल एक गौण सत्य है, मुख्य




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