काव्य में अभिव्यंजनावाद | Kavy Me Abhivyanjanavaad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृत साहित्य-शास्र का परिचय न्ट अभिन्यजनावाद के खरूप को निश्चित करने और उसकी समीक्षा के पहले यह बहुत आवश्यक प्रतीत होता है कि सक्षिस रूप से सरकृत साहित्य-गाख्र का परिचेय दिया जाय । इससे यह पता चलेगा कि सस्रत में साहित्य-गास्र के कितने सिद्धात हैं ओर उनसे अमिन्यजनाबाद की कितनी समता या विषमता है । अमिन्यजनावाद पश्चिमीय साहिव्य-जगत्‌ की उपज है, किसी भारतीय साहित्य-शास्त्र के सिद्धात से इसका पूरा-पूरा मेल नहीं है । ध्वनि और बक्रोक्ति से इसकी थोडी-सी समता है, कितु यह समता स्वतत्न रूप से आई है। भारतीय शादित्य-शाख के सिद्धात बहुत पुराने हैं ओर यूरोप के साहित्य का अभिव्यजनावाद अभी कल की बात है । भाव-प्रकागन की शेखी ओर क्षमता, प्रत्येक देश या जाति की क्या, हरएक व्यक्ति की मिन्न-मिन्न होती है । यूरोपीय अभिव्यजनावाद की जो छाया हिन्दी काव्य-जगतू पर पडी है वह सर्वथा विश्युद्ध नहीं | उस पर भारतीय साहित्य का सस्कार वर्चमान है । रस ओर अलकार का जितना सूक्ष्म निरीक्षण हमारे साहित्य में है उतना यूरोपीय साहित्य मे कहाँ मिलता है| भारतीय दृष्टिकोण से अभिव्यजनावाद की समीक्षा के लिए यहाँ के साहित्य-सिद्धातो का परिचय आवश्यक समझ पड़ता है । प्राक्थन




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