श्रीमद् राजचंद्र और भक्तरत्न | Shreemad Rajchandra Aur Bhaktratna

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Shreemad Rajchandra Aur Bhaktratna by प्रेमचंद रवजीभाई कोठारी - Premchand Ravajibhaee Kothari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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> वार गतियो मे पर्णिमण करते-क्रते जीव के ज्युम पुण्य के संचय से अमो मनुष्य देह प्राप्त होता है। जन्म-मरण से मुक्त द्वोने का जो योग देवगति में भी देवों को दुभ है, वह मनुष्य भव मे जीव के सत्‌ पुण्य योग से सवम के कारण घुरभ होता है | ऐसी मनुष्य देह के अनन्त बार प्राप्त होने प्र मी, जन्म-मरण से मुक्त होने के लिप्‌ अथक्र पुरुषार्थं करने पर मी, अभी तक जीष को जन्म-मरण से च्ुटकारा नदौ मिला । बहु पुण्यके पुंज से, शुभ देहे मानव कामिका | জী লী আই সন चक्र का, आंटा नहीं कोई टछा | १ দা স্বদহঘি जननम्‌ पुनरपि मरणस्‌ पुनरपि जननीजठरे शयनम्‌ । --भ्री शंकराचार्य देह प्राप्त होने पर मनुष्य जिस कुल में जीव जन्म लेता है, उस कुलधर्म के अनुसार वह धर्मकायें करता है । धर्मकार्यं करने से पुण्य की प्राप्ति के कारण, जगत्‌ का सर्वोपरि छुख प्राप्त होने की अभिलाषापू्वंक, लौकिक दृष्टि से, प्राणि-मात्र धर्म करने के लिए प्रेरित होता है | उसी को वह सतधम मानता है। सतधम का फल मुक्ति होता है । सधर्मं का स्वरूप क्या है! पूर्वकाल के महात्माओं ने भी धम के है में लिखा है-- घरम धरम करता सब अग फिरै, अरम का न जाने दो ममे**' जिनेसर धरम जिनेसर चरण गद्बा फिर, कोई न बाघे हो कर्म''' जिनेसर -- भी आनंश्घनजी जा बहु पुण्यकेरा पुंज थी शुभ देह मानवनों मत्यो, तो ये अरे | भवचकनो, आंटो नहिं एक्के टछ्यों | -भीसव्‌ शाजयन्द्रमोक्षमाला, अमूल्य तत्व क्चिर ६७ & ममर ओ ¦ 1 १




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