विश्व की कहानी | Vishaya Ki Kahani
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
143 MB
कुल पष्ठ :
113
श्रेणी :
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No Information available about श्री कृष्णा वल्लभ द्विवेदी - shree krishna vallabh dvivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उनकी स्पष्टता भी
... मारी जायगी। बड़े ছু
.... आकाखाले यराख़
को हम च्रनेक सूम
... छिंद्रों से बना हुआ
.. मान सकते हैं | अतः ॥
. ऐसे छिंद्र द्वारा बना
. हुआ बिम्ब भी अस्पष्ट |
.. ही होगा | और বহি
.. छिद्र का आकार
.. काफ़ी बड़ा हुआ तो `
अद् जायगा, किन्त চুর
बिम्ब इतना अधिक
अस्पष्ट हो जायगा
. कि ब्रिम्ब के स्थान
.. पर ग्रकाश का केवल
चंद्रग्रहण के समय पड़नेवाली पृथ्वी की “प्रच्छाया! और “डउपच्छाया! पा
पूरणिमा के दिन जब कभी चंद्रमा मौके से एथ्वी के छायाकोण में प्रवेश करता है तमी
चंदग्रहण होता है । श्रच्छाया' श्नौर “उपच्छाया” का सिद्धान्त इसी चित्र के निचले कोनेमे `
लेप के सामने तड़्ती रखकर किए जाने वाले प्रयोग द्वारा समाया गयाहे । =
. एक हलका-सा धब्बा ही नज़र आएगा, चित्र नहीं ।
लालटेन के सामने एक तख्ती खद्धी कर॒ दीजिए--बस
तख्ती की आड़ में अथेरा-ही-अँवेरा नज़र आएगा, क्योंकि
ग्रालोक-रश्मियाँ मुड़केर तख्ती की आड़ में पड़नेवाली
जगह तक नहीं पहुँच सकतीं। फिर आपने गौर किया
...॑. होगा कि प्रातः्काल की धूप में ज़मीन पर आपकी छाया बेहद
लम्बी दिखलाई पढ़ती है । ज्यों-ज्यों सूय आकाश में ऊपर
चढ़ता जाता है, आपकी छाया भी छोटी पड़ती जातो है। `
.. संध्या को सूर्य जब नीचे उतरता है, तब आपकी छाया
.._ पुनः लम्बी हो जाती है। प्रातःकाल की छाया पश्चिम की ओर
00000000000 ओर सन्ध्या को पूर्व दिशा में पड़ती है। हर हालत
{^ आप देखेंगे कि छाया ठोस पदार्थ के पीछे तथा प्रकाशो-
दादक के दूसरी श्रोर दही पड़ती है । ५:
` ` यदि ग्रकाशोत्पादक का श्राकार कुछ अधिक बड़ा नदी
` श्रा तो इसके द्वारा प्रज्षालित छाया भी स्पष्ट ओर गहरी.
उमभरती है और यह छाया एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक .
..... समान रूप से काली होती है। ऐसी छाया की सीमान्तक-
रेखाएँ भी स्पष्ट दीखतीं हैं । क्
00 इसके प्रतिकूल यदि प्रकाशोत्रादक का आकार बड़ा ४
श्रा तो इसके दारा प्रक्ञालित ठोस वस्तुश्रोंकी छायाका
समूचाभागनतो समान रूप से काला होगा और न उसकी
` सीः एेसी छायाकेमध्य-
सीमान्तके रेखाए ही खष्ट उभरेगी । ए
पहुँचने पाता । फलस्वरूप छाया का यह भाग निपट काला
होता है| इसे 'प्रच्छाया' के नाम से पुकारते हैं | प्रच्छाया
के दोनों ओर छाया का वह
अ्काशोत्यादक के समूचे अंग से तो नहीं; किन्तु उसके कुछ
भाग से आलोक अवश्य पहुँचता है। अतः यह छाया
उतनी गादढ़ी नहीं होती जितनी प्रच्छाया । इसे “उपच्छाया
_( अश्रद्धछाया ) के नाम से पुकारते हैं। 0
के छायाकोण में प्रवेश करता है तो पूतों के चाँद पर |
भाग स्थित होता है जिसमें
चन्द्रमा ओर पृथ्वी दोनों ही सुब्य के प्रकाश से आलों
कित होते हैं | श्रतः दोनों ही के पीछे लम्बी प्रच्छाया और
उपच्छाया पड़ती हैं। पूर्णिमा के दिन जब चन्द्रमा प्थ्वी `
पृथ्वी की काली छाया पड़ती है। फलस्वरूप चन्द्रमा का
धरातल भी आंशिक या पूणु रूप से आलोकविद्दीन हो
जाता है और हमें ग्रहण दिखाई पड़ता है। केवल पूर्णिमा
की रात को ही चन्द्रमहण का लगना सम्मव हो सकता
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