समयसार | Samaysaar

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Samaysaar by हीरालाल -Heeralal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यं १ @ - यह पुस्तक 'समयप्रामृत' के नामे विक्रम सं° १६६४ मै प्रकाशित हहे, उसके बाव उस पुस्तकको पंडित मनोहरलालजीने प्रचलित दिंदीमें परिवर्तित किया और ध्रीपरमश्रुत प्रभावक मण्डल धीमद्‌ राजचन्द्रप्न्थमाला द्वारा 'समयसार' के नामसे वि* सर १९७४ में प्रकाशित हुवा, उस हिन्दी प्रन्थके आधारसे, उसीप्रकार संस्कृत दीकाके शब्दों तथा आशयसे खिपटे रद्दकर यह गुजराती अनुवाद तैयार किया गया है। यह अनु बाद करनेका मह्ाभाग मुझे प्राप्त हुवा यह मुझे अत्यन्त हर्षका कारण है। परमपूज्य थी फानजी स्वामीकी छत्नछायामें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुवा है। अजुवाद करनेकी समस्त शक्ति मुझे पूज्यपाद भ्रीगुरुदेवके पाससे ही मिली है। मेरी माफंत अनुषाद हुवा इससे वह श्नु वाद्‌ मैने किया है ऐसा व्यवहारसे भले ही क॒द्दा जाबे, परन्तु मुके मेरी अत्पश्षताका पूरा शान होनेंस और अनुवादकी सर्च शक्तिका मूल पूज्य श्रीयुरुदेष ही होनेसे में तो बराबर सममता हैँ कि श्रीगुरुदेवकी अ्रमृतवाणीका तीव वेग ही- उनके द्वारा मिला हुवा अनमोल उपदेश ही यथाकाल इस अनुषवादरूपमें परिणमा है। जिनके बलपर ही इस अतिगहन शास्त्रके अनुधाद करनेका मेन साहस किया था और जिनकी हृपासे ही यह निर्विप्न पूरा हवा है उन परम उपकारी गुरुदेव के चरणारघिदमे श्रति भक्तिभावसे यन्दन करता हूँ। इस अनु वादम अनेक भाइयोंक्री मदद है | माह भरी श्रस्नलाल भाटकरिया की इसमें सबसे ज्यादा मदद है। उन्होंने सम्पूणं अनुवादका अति परिश्रम करके बहुत ही सूदमतास श्रौर उत्साहसे संशोधन किया है, बहुत सी अति-उपयोगी सूचनाए उन्होंने बताई, संस्कृत टीकाकी हस्त लिखित प्रतियोंका मिलान कर पाठान्तरोकों ढूंढ कर दिया, शंका-स्थज्ञोंका समाधान परिडत जनोंसे मेंगाकर दिया-आदि अनेक प्रकारसे उन्होंने जो सर्वतोमुखी सहायता करी है उसके लिये मै उनका अत्यन्त आभारी हूँ । अपने विशाल शास्त्र शानसे, इस अज॒बादमे पड़ने वाली छोटी मोटी दिक्कतोंको दूर कर देने चाले माननीय श्री घकील रामजीभाई माणकचन्द दोशीका में हृदय पूवेक आभार मानता हूँ। भाषांतर करते समय जब * कोई अर्थ बरावर नहीं बैठा तब २ मैंने पूज्य प० गरेशप्रसादजी वर्णी श्चौर प° रामप्रसादजी शास्त्रीको पत्र द्वारा (भाः श्रमूुनलालजो छारा ) अर्थ पुछवाने पर उन्होंने मेरेको हर समय बिना संकोचके प्रश्नोंके उत्तर दिये इसके लिये मै उनका अन्त. करण पूर्वक आभार मानता हूँ । इसके अनंतर भी जिन २ भाईयोंकी इस अनचुवादमे सहायता है उन सबका भी में आभारी हैँ । यह अनुवाद भव्य जीवों को जिनदेव द्वारा प्ररूपित आत्म शांतिका यथार्थ मार्ग बतावे, यह मरी अंतरकी भावना है, श्री अम्गृतचांद्राचार्यदेयक्रे शब्दों में यह शास्त्र




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