संक्रामक रोग चिकित्सा | Sankramak Rog Chikitsa

Sankramak Rog Chikitsa by वेध ओ पी वर्मा

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पात्टाड। हा डाग्क्ूग्या कानत डा० श्री छृष्णकान्त आयुर्वेद के उस नगर मे अधिष्ठित हैं जहा के नाम से हुर शारतीय आत जूत रहा है । आपने उस सड्ुट की घडी से-भी आयुर्वेद को प्रतिष्ठित रखा । वर्तंसान मे आप शी लक्ष्मीनारायण आयुर्वेद महाविद्यालय, असृतसर मे प्राचार्य पद पर आसीन हैं। आप इस सस्था से पूर्व 'पचनद आयुर्वेद सहाविद्यालय' में आचार्य पद पर सुशोसित थे । गुरु नानक देव विश्वविद्यालय की आायुर्वद फँहल्टी के आप डीन हे । आपसे आयुर्वेद जगत को बहुत कुछ आशायें हे । आरा है आप पूर्ण तगन से आयुर्वेद सेवा में सलग्व रहकर योग्य आयुर्वेदाचार्यों को प्रतिष्ठित करेंगे । आपका जन्म आयुर्वेद परिवार से ही हुआ है । आप श्री नामधारी जो शास्त्री के सुषुत्र है जोकि पंजाब में आयुर्वेद के स्तम्भ हूँ । संक्रासक रोग चिकित्सा हेतु आपने *जीचाणुदवाद एद आयुर्वेद' लेख भेजा है । लेख रुच्किर एवं पठनीय हूँ । जीवाणुवाद ओर सक्रासक रोगों के विपय मे धारणा है कि इस विपय का जान आधुनिक युग मे ही हुआ है । प्राचीन चिकित्सा विज्ञान मे इस प्रकार की कोई उप- लब्धि नहीं है क्योकि वर्तमान मे सुधम-वीक्षण यंत्र द्वारा प्रत्यक्ष रूप मे जीवाणुओ की आकृति, उनसे उत्पन्न रोग एव तत्तदु जीवाणुनाशक औपघधि का प्रयोग इस वात का समर्थन करते है । जीवाणु सवर्धन (पाए) पद्धति जो कि अत्वाधुनिक उपलब्धि हे इस वात को और भी अना- वृत करती है । इसके अतिरिक्त १८४४ में डा० हाल्डर, १८४५० में डा० डूयुन एव १८७६ में जर्मन के डा० काक ने जीवाणु विज्ञान पर विशेष अस्वेषण ओर परीक्षण किये और रोगो के सुल कारण जीवाणुओ के सिद्धान्त की नीव रखी । अत विभिन्‍न जीवाणुओं का ज्ञान, सक्रामक रोगों का ज्ञान एव उनकी चिकित्सा व्यवस्था आदि का श्रेय आधुनिक वैज्ञानिकों को ही जाता है और इससे सम्बद्ध चिपय को भाधुनिक युग की देन समझा जाना स्वाभाविक है। परन्तु प्राचीन वैदिक साहित्य और चिकित्सा विज्ञान फा परिशीलन करने पर तथ्य इसके विपरीत दिखाई देते है और सवल प्रमाण मिलते हे कि जीवाणु- वाद, सक्रमण, सक्रामक रोग एवं उनका प्रतिरोध तथा चिकित्सा व्यवरथा आदि का विस्तृत वर्णन जौर तत्स- -चैद्य ओ० पी० चर्मा । “टएएएटाटणटटननननननननननननन.. म्वन्घी मौलिक सिद्धान्त हजारो वर्ष पूर्व वैज्ञानिक रूप मे स्थापित किये गये थे । इन सिद्धान्तो और निर्देशों के अनुसार प्राचीनकाल में ही सक्रामक रोगों की चिकित्सा, जीवाणुहरण, वातावरण का णुद्धिकरण आदि किया जाता रहा है । प्राचीन ग्रन्थों में शतण जीवाणुनाशक औप- घिया तथा उनकी प्रयोग विधि, जीवाणुजन्य रोग एव जनपदोध्वस (एवंला।८) का योजनावद्द विस्तृत वर्णन और प्रिवेचन इस बात के सजीव प्रमाण हे । जीवाणु नाण के लिए औषधिया, मन्त्र, भरिन, विद्युत, सूय॑ रशिम भादि अनेक विधि उपायों का विभिन्‍न शास्त्रों में निर्देश हे । निम्नलिखित अथवंवेद के मन्त्रो से यह बात स्पष्ट हैं कि अहृश्य ओर हश्य कृमियो का ज्ञान चैदिककाल से ही मालूम था । थे क्रिमय पर्वतेषु कनेषुओषधिशु पशुस्वपस्वन्त । थे अस्माक तंन्व मा. चिथिशु सर्व तद्‌॒ हन्मिर्णच कमीणामू 1 ओतो सेधावा पृथ्वी ओता देवी सरस्वती 1 ओतो ये इन्द्रश्चार्निश्च क्रिमि जम्मयतामिति ॥। इन उद्दरणों से यह वात स्पप्ट हो जाती है फि प्राचीनकाल में उस वात का पूर्ण शान था फि समस्त वायु मण्टल में जदश्य और दृश्य असख्य जीवाणु हूँ ॥ उस कात में जीवाणुओ का ज्ञान ही न था अपिनु




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