अनेकान्त | Anekant

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Anekant by यशपाल जैन - Yashpal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सोनागिरि सिद्धक्षेत्र शौर तत्सम्बन्धी साहित्य १३ का विस्तारपूर्वक महत्त्व प्रतिपादित किया है। नंग और प्रनगकुमार का पुण्यचरित भी इसी काव्य मे पाया जाता है, भ्रन्य किसी ग्रन्थ मे नही । ভীলানিহি क्षेत्र के तीन पूजा ग्रन्थ उपलब्ध है। सस्कृत भाषा में कवि आशा द्वारा विरचित आ्राठ पत्रों की यह पूजा है। पृजा में रचताकाल का निरश नहीं है, पर भाषा लैली के श्रावार पर इसे सब्रहवी शती को रचना मानी जा सकती है । हिन्दी भाषा में इस क्षोत्र को तीन पूजा प्रतियोका निर्देश मिलता है! रचयिताग्रो के नाम इन पूजा प्रतिया में ग्रकित नही है और न रचनाकाल का ही स्पष्ट निःश है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थसूचो चतुर्थ भाग मे ग्रन्यसख्या ५५२१ और ५८६५ में उक्त पूजाओं को सूचना दी गई है। ५८६५ सख्या के गुटके मे पावागिरि और सोनागिरि की इन दोनो ही क्षत्रो की पूजा निबद्ध है । उपसंहार सोनागिरि क्षेत्र निर्वाणभूमि है, इसका प्रचार पन्द्रहवी शती से व्यापक रूप में है। यो यहाँ पर ११-१२वी शती में मन्दिरों का निर्वाण हो चुका था। चन्द्रप्रभ स्वामी का समवशरण लाखों वर्षों तक यहां रहा, अ्रतः प्रधान मन्दिरं चन्द्रप्रभ भगवान्‌ का रहना तकसगत है । नग और प्रनंग- कुमार का सम्बन्ध सोनागिरि के साथ भ्रवश्य है, अतएव इसके सिद्धक्ष ञ होने मे श्राशका नहीं है। यहाँ का मेरु- मन्दिर, जो कि चक्की के श्राकार का होने के कारण चक्की वाला मन्दिर कहलाता है, बहुत भ्राकषकः है । पवत के ऊपर का नारियलकुण्ड एवं बजनीशिला यात्रियों के लिए विश्लेष रुचिकर है । पवेत पर कूल ७७ मन्दिर भ्र नीचे अठारह मन्दिर है। श्रधिकाड मन्दिर विक्रम सवत्‌ की अठारहवी और १९वीं शती के ही बने हुए है। इसे क्षेत्र की विशेषता इस बात मे है कि वहाँ धामिक वाता- बरण के साथ प्रकृति का रमणीय रूप भी परिलक्षित होता है । कलकल निनाद करते हुए भरने एवं हरित मखमल की आभा प्रकट करती हुई दूर्वा भावुक हृदयकोल्हज ही श्रपनी ग्रोर श्राकृष्ट कर लेती है । हम क्षेत्र के अधिकारियों से इतना नप्र निवेदन भी कर देना अपना कत्तंव्य समझे है कि वे वहाँ के मूतिलेख एव ग्रन्थ प्रशस्तियों को प्रामाणिक रूप में प्रकाशित करा देने को व्यवस्था करे, जिसते इस पुण्यभूमि का इतिहास लिखा जा सके ` क्या कभी किसी का गये स्थिर रहा है ? रे चेतन ! तू किस किस पर गव॑ कर रहा है, ससार में कभी किधी का गव॑ स्थिर नहीं रहा । जिसने किया उसी का पतन हुआ । फिर पामर | तेरा गवं कंसे स्थिर रह सकता है। ग्रहंकार क्षण मे नष्ट हो जाता है। जब सांसारिक पदार्थ ही सुस्थिर नही रहते, तव गर्व की स्थिरता कैसे रह सकती है ? सो विचार, भ्रहंकार का परित्याग ही श्रेयस्कर है । इस सम्बन्ध मे कविवर भगवतीदास झओसवाल का निम्न पद्य विचारणीय है :-- धूमन के धोरहर देख कहा गय॑ कर, ये तो छिन मांहि जांहि पौन परसत हो । संध्या के समान रंग देखत हो होय भंग, दीपक पतंग जंसें काल गरसत हो ॥ सुपने में भूष जंसें इन्द्र धनुरूप जेसें, श्रोस बूंद धूप जैसें दुरं दरसत ही । রঙ ऐसोई भरम सब क्मजाल वगणा को, तामे मूढ मग्न होय मरं तरसत ही ॥ `




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