कल्याण- 12 | Kalayan -12
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
46 MB
कुल पष्ठ :
724
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परमहंस-विवेकमाला
( लेखक--सखामीजी श्रीभोलेब्राबाजी )
[ वर्ष ११ प्ृष्ट १४७७ से आगे ]
[ मणि १० च्हदुारण्यक |
अभयदानकी उत्कृष्टता
रे जनकः ! कुखध्रजमे सू्ेग्रदणकानमे कोर
पुरुष सुवर्णादि पदार्थसि पणं सं पणे पृथिवीका
ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणको श्रद्धापूवंक दान करदे, उस
दानसे मी स्थाचर-जंगम प्राणियॉमे किसी एक
प्राणीकी भी अभयकी प्राप्ति करानी कहाँ अधिक
दान हैं | तात्पर्य यह ६ कि स्थावर-जंगम
प्राणियॉर्मेंस किसी एक प्रणीको भी জা
पुरुप अभयदान दता टर उम अभयदानस भी जब
कोई पुण्य अधिक नहों ६, ता जा पुरुप सर्बकाल+
सर्वदेश?र्म सर्वप्राणियॉकी अभयदान दे লা
डखसे अधिक काई पुण्य नहीं है, इसमें कददना ही
क्या है इसखिय जो संन्यासी सयको अभय-
दान देकर आन्मसाक्षान्कारक न्मयि यत्व करता
ह, वह इस दारोरमे अध्वा अन्य হাকীক্মী উল
दर्शनजन्य भयकों प्राप्त नहीं होता किन्तु सर्च-
भयसे गछित अद्वेत ब्रह्मकों हो प्राप्त होता ह#।
इसन्टियि अभयदानस अधिक अन्य दान नहीं ह# ।
अद्विसाकी उत्कुषता- हे जनक : जरायुज्ञ- अण्डज,
स्वदेज, उद्धिज्ञ- इन चार प्रकारके जत्वोकी शरीर:
मन, वाणीम दुश्ख न पहचाना: इसका नाम
अहिंसा £ | इस अहिसामे ही सत्य- दया. नप,
दान--इन चार पादवाला घमं सक्श्ा निवास
करता है। है जनक ! हिंसा तीन प्रकारकी होती
है--शरगीरक्त, वाणीकृत ओर मनकूृत । जरायुजादि
चार प्रकारकें जीवोंके शरगीरम शख्रादिस प्रद्दार
करना, मन्त्र-आपधि আহিল रोगकी उत्पत्ति
करना; उनकं स्री, धनः अन्नादिका हरण करना
इत्यादि जीवोके मरणक अनेक उपायोका नाम
शगीरकूत हिंसा है। किसीके किसी दोषको द्वेपभावसे
राजा तथा राजाके भत्योक्र समीप कथन करना,
अन्य प्राणियोक्छो निन्दा करना ओर गुणवान
दोष कथन करना इत्यादि वाणीकृत हिंसा ই।
अन्यके कीति आदि गुर्णोंकों सहन न करना;
अन्यके घनादि पदार्थोकी प्राप्तिके लछिये अनेक
उपाय सोचना, तथा दुसरोंके मरणका उपाय
करना, इत्यादि मनस दुश्खश-चिन्तनका नाम
मनरृत दिसादै।
हे जनक ! किसी देवदत्त नामक प॒रुपका
यशदत्त नामका दात्रु हैं, उस यक्षदत्त दात्रुको জা
पुरुष दवदत्त नामक पुरुषको माग्नकी वुद्धि ओर
ध्रनादि पदां दे. इसका नाम उपायहिंसा हैं
यह उपायहिंसा कई प्रकारकी होती ই হল
लोक सथा परलोकर्म अपने या अन्य प्राणियोंको
दुःख देनवात्ा मिथ्या वचन भी दिंस्तादीदे।
यह्ष-दानादिम भवृत्त हुए पुरुषकां अनेक प्रकारके
कुतकोंस उस शुभकर्मल निवृत्त करना और आप
भी शुभकमे न करना, इसका नाम नास्तिकपना
है, यह লা हिसा दै । शात्रवहित सन्भ्या-
गायत्री आदि नित्यनैमित्तिक कर्मोक्रा न्याग
হুলা শীত शाह्मनिषिद्ध परसख्रीगमनादि पापकर्म
करना; ये दोनों करनेवालेको, उसके कुल्ठकाो और
देशका अनर्थकी प्राप्ति करत हैं, इसलिय ये दोनों
भी हिंसा हैं | जो पुरुष इस भारतखण्डमें
अधिकारी मनुप्यशरीर पाकर निद्रा-तन्द्रादि
तामस इत्ति अपनी उच्च व्यर्थं खा देन
हैं. उनको इस लोक ओर परलोकर्मे दुश्वको
प्राप्ति होती दे। इसलिये निद्रा-तन्द्रादि भी
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