सागर और सीपी | Sagar Aur Seepi

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Sagar Aur Seepi by घनश्याम अग्रवाल - Ghanshyam Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सागर और सीपी : 7 नीच किये बैठा रहा । नजर उठाकर भी अमर ने उसे नहीं देखा | मो ने बजाय लाकर रखी तो चाय की प्यासी भी नीचे मुह किये ही पी गया। मा हो बुछ कभी-कभी पूछ लिया करती थी । और लड़की छोटे से लपजों में उत्तर देकर चुप हो जाती। अमरहा या ना के अलावा कुछ बोल भीन बाता। भौर जब रात को अमर वापस लौटा तो माँ से चुप न रहा गया, पूछ ही बैठी तुझे पसंद है न अमर यह लड़की । तेरे विताजी ने भी इसे देखा था। तू बी० एु० कौ परीक्षा दे ले तेरा ब्याह किये देती हूं इससे 1 अमर फिर भी वही मूर्तिवत बना रहा केवल यह बाहकर कि जो तुम्हें पसंद हो मां उन्ही दिव्यो मे भमर की शादी हो गयी। किसी तरह अमर इस बोझ को सहन करने के लिए नौकरी दूढ़ लाथा। एक. सौ दस रुपये मासिक कौ बली की नोकरी उसे मिस ही गयी घर खर्च को चलाने के लिए মহ अमर को इस पर शांति नदी धी} जीवन से जूझने वाला गिरकर उठता है और अंपनी मंजिल पा ही लेता है । अमर শী নী বদনা की आग में तपा हुआ है जिसने इस अवस्था तक आति-आते बाई ठोकरे पाई ই নাহ उतार-चढ़ाव देखे है। अुलीगिरी से लेकर वादूगिरी तक की है. लेकिन अमर আস তন सभो यातो को एकः याद बना चुका है और जब कभी समृति दौ साती है तो रोमांचित हो उठता है। হনব वेः चाद जन कोई चीज मिलती है तो उसका लुत्फ बुछ और ही होता है। अगर को इस लुर्फ का पूरा अनुभव है और उसके इस मनोरजक और प्रेरणादायक कथा नक को सुनकर मुझे उससे और भी अधिक आत्मीयता हो जाती है। यही कारण है कि न अमर ढे मनम कोई चीज छिप पाती है और ने मेरे ही मत से । ১৫ १६ २८ निषा ह्र घड़ङे बीतने के साथन्साथ जीवनके निकट आती गी 1 और उसकी इस निकटता को पाकर मे आपूर्व उन्माद वा अनुभव करने लगा। मैं सोचने लगा निशा संसा जीवनसाथी पमिल जाय में अपने स्वप्नों की दुनिया में उसकी कल्पना कर खो जाता। और मृते लगा अब मां की आस पूरी हो जावेगी 1




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