प्रमाणिक प्रभाकर गाइड | Pramanik Prabhakar Guide

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम पत्र -काव्य-कादस्वरी १९ सुनकर भगवान्‌ भी भ्रन्‍्त मे अपने मत की वात कहने को विवश हुए । उन्होने बताया कि है उद्धव, ब्रज की याद मुझ से भुलाए नही भूली जाती | जब वहाँ की याद जगती है, में अपने को सम्हाल् नहीं पाता हूँ । उद्धृत पद्च में भगवान्‌ कृष्ण के मनोभावों का वर्णन है । भावार्थ--(भगवान्‌ ने उद्धव से कहा) हे उद्धव, मुझे भी ब्रज भूला नही जाता है (ब्रज में कुछ आकर्षण ही ऐसा है, तुम्हारा कथन सही है) । यमूना की वह सुन्दर कछार भ्रौर भुरमुटी (कु जो) की छाया, वह गाये, वह वच्डे, वह्‌ मटकी श्रौर वह्‌ यौचाला मे दध कटवाने जाना (कितना भ्रानन्द प्रदायक थे, कहना कठिन है) । समी गोप बालक (मेरे जाते ही वहाँ) शोर मचाने लगते थे श्रौर मेरी वाहं पकडकर नाचने लगते थे । (मे मानता हूँ) यह मथुरा स्वर्ण घन परे पूर्ण नगरी है, मशि और मुक्ताग्रो की यहाँ प्रचुरता है किन्तु फिर भी जब वहाँ के सुख की याद श्राती है, हृदय उमगो से भर जाता है, में (भावनाओं में) विदेह बन जाता हूँ । मेने वहाँ अनेकों प्रकार के खेल किए (कितने ही प्रकार के भले-बुरे काम किए), यशोदा और नन्द ने सभी को अपने सिर भेला (किसी को बुरा नही माना) । सूरदास कहते है, भगवान्‌ (इतना कह कर) मौन हो गए (लगता था हृदय की वात कहने के वाद) वह पश्चाताप करने लगे । जो जन उधी | मोहि न विसारत, तिहि न विसारो एक घरी । मेदी जनम जनम के सकट, राखों सुख श्रानद्‌ भरी। जो मोहि भन भजो मेँ घाकौ यह परिमिति मेरे पाईं परी । सढा सहाय करौ वा जने फौ शुप्त हुती सो प्रकट करी । सूरज दास ताहि ठर काकौ निसि वासर जो जपत हरी। , (माकर, नवम्बर १६९६) प्रसग--अस्तुत पद्य मे भगवान्‌ अपने स्वभाव का वर्णन करते है--- “हम भक्तन के भक्त हमारे” का भाव ही उद्धव को वता रहे है। | भावारथ--हे उद्धव, मेरा जो भक्त मुझे भुलाता नहीं है में भी उसे एक क्षण के लिए नही भूलता ( यहं मेरी भादत है ठीक समको) मे उसे जन्म- जन्मातर के दु ख्रों से दूर कर देता हूँ भौर सुख-झानन्द से पूर्ण रखता हूँ । जो भुझे भजता है (बदले मे में भी उसी-प्रकार) भजता हूँ, मर्यादा वन्वन मे मेरे पैर जकड़े हुए है ( इससे श्रागे में बढ़ ' वही सकता:) । मेँ डूस भक्ते की ,




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