कर्मवाद और जन्मान्तर | Karmwad Aur Janmantr

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Karmwad Aur Janmantr  by हीरेन्द्रनाथ दत्त - Hirendranath Datt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छमैवाद कौ युक्ति ~ इस निराशा-साहिल से सजा हुआ ই। इसका फल यदह हमा है कि चिरमचलित दुःख-वाद्‌ ( 70४७7501) सर्वग्रासी नैराश्य के घने आँधेरे में परिणत होकर यूरोप के विशाल आकाश में विराजमान हैं । यूरोप के दशनशात्र ने भो जगत्‌ कौ इस विपमता की आलोचना की हैं। जिन दाशनिकों ने इसकी छान-बीन की ই इनमें लाइवनिदज़ ( 16०1४ ) और कंट ( ६४16 ) का मत चिशेष रूप से उल्लेखनीय है। लाइवनिट्ज़ कहते हैँ कि सृष्ट पदार्धसात्र ससीम होगा; क्योकि सृष्टि कहते ही सीमा का ज्ञान होता है। सीमादीन सृष्टि हा ही नदीं सकती । श्रतएव जीव जव सृष्ट पदार्थे है तव वह भी ससम हन्ना । जहाँ ससीम हुआ तहाँ असंपूर्ण होना ही पढ़ेगा । श्रैषर जीव जब असंपूर्ण है तव पाप करना उसके पक्ष में निश्चित हैं; शरोर पाप का फल दुःख वना वनाया है। अतणएव जब सृष्ट पदार्था से ही संसार चना ই तव उस संसारम दुःख ते रगा ही। जगत में दुःख होनेसे यह सिद्धांत स्थापित करने की कोई युक्ति नदीं रद जाती कि सर्वशक्तिमान्‌ सवतः. पृ परमेश्वर ने इस अगत्‌ क नदीं वनाया रै । लाइवनिट्ज़ ने जितनी वाते कही हं उनमें यदी दिखलाया है कि ईश्वर-सृष्ट जगत्‌ में दुःख को स्थान किस प्रकार मिला हैं। किंतु उन्होंने विपमता का क्‍या समाधान किया ९ सभी जीव अपूर्ण हैं । तब कोई-कोई, अल्पबुद्धि के वश होकर और




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