भगवती सूत्र भाग 2 | Bhagwati Sutr Bhag -2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
581
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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देवियों हारा इस तिच्छलोक के असंख्य दीप ओर समुद्रो तक के स्थलको
माकण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीणे, स्पृष्ट ओर गाढावगाढ् कर सकता हं
স্থল चमर इतने रूपों की विकुवेणा कर सकता है कि जसंस्य दीप समुद्रो तक
के स्थल को भर सकता है। है गौतम ! असुरेन्द्र श्रसुरराज चमर की ऐसी
ছাদিল हु-विषय हे-विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने ऐसा किया नहीं, करता
नहीं और करेगा भी नहीं ।
| विवेचन- दूसरे शतक में श्रस्तिकायो का कथन सामान्य रूप से किया गया था । भ्रव
इस तीसरे शतक में .अरस्तिकायों का विशोषरूप से कथन करने के लिए जीवास्तिकाय के
विविध পরমা का कथन किया जाता है । इस प्रकार दूसरे और तीसरे शतक का संकलनरूप
संवंध है ।
तीसरे शतक में दस उद्देशक हैं । उन दस उद्देशकों में किन किन विषयों का वर्णन
किया गया है ? इस वात को सूचित करने के लिए संग्रह गाथा कही गई है प्रथ् संग्रह
गाथा में दस उद्देशकों की विषय सूची दी गई है। पहले उद्देशक में चमरेन्द्र की विकुर्वणा
शक्ति, दूसरे में चमरेन्द्र का उत्पात, तीसरे में कायिकी आदि क्रिया, चौथे- में देव द्वारा
विकुवित यान को क्या साधु जानता है, इत्यादि का निर्णय । पाँचवें में क्या साधु वाहर
के पुदूगलों को लेकर स्त्री श्रादि के रूपों की विकुवंणा कर सकता है, इत्यादि श्रर्थ का
निर्णय । छठे में जिस साधु ने वाराणसी (वनारस) में समुद्घात किया है क्या वह राजगृह
नगर में रहे हुए रूपों को जानता है, इत्यादि का निर्णय । सातवें में लोकपालों के स्व॒रू-
पादि का कथन । आ्राठवें में असुरकुमारादि देवों पर कितने देव अ्रधिपतिपना करते
इत्यादि वर्णन । नववें में इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी वर्णन और दसवें में चमरेन्द्र की परिषद
(सभा ) संबंधी वर्णन है ।
चमरेन्द्र कितनी मोटी ऋद्धिवाला है, इस वात को बतलाने के लिए कहा गया
है कि-चौतीस लाख भवनावास, चौसठ हजार सामानिक देव, और तेतीस च्रायस्त्रिशकं देवों
पर सत्ताधीशपना करता हुआ चमरेन्द्र यावत् विचरता है। यहाँ मूलपाठ में 'जाब' शब्द
दिया है जिससे इतने पाठ का ग्रहण करना चाहिए-
“चउप्ह लोगपालाणं, पंचप्हुं अग्गममहिसीणं सपरिवाराणं, तिप्हूं परिसाण्ण, सत्तण्हं
अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउप्हूं चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च
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