प्रेमचन्द | Pram Chand

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Pram Chand by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३६ ७ २६४ [ अमर्चदः सद्भावनाओं का संचार करे, इसके लिए ज़रूरत है कि उसके चरित्र ?0०५४४९८ हों, जो प्रलोभनों के आगे पिर न मझुकायें ; बल्कि उनको परास्व करें ; जो वासनाश्रों के पंजे में न फंसे ; बल्कि, उनका दमन करें ; जो किसी विजयी सेनायति को भाँति शत्रुओं का संहार करके विजयनाद करते हुए निकलें । इख तरह यथाथ कौ भयंकरता से प्रेमचंद समझोता करते हैं ; भयंकर होने पर भी जब यह दिखाया जायगा कि आदशवाद उसकी गदन पर सवार है तो लोगों का भय दूर हो जायगा और वे श्रादशंवाद पर श्रद्धा करने लर्गेगे । एक तरह से प्रेमचंद ने यथार्थवाद को मनुष्य की कमज़ोरियों का पर्य्यायवाची मान लिया है। लेकिन यथाथ में सच्चे साधु पुरुष भो तो होते हैं जिनके अन्दर कमज़ोरियों से अधिक शहज़ोरियाँ होती हें ! अपनी ही व्याख्या से जैसे चिढ़कर वह पूछते हैं, 'क्या यथार्थता अपने क्षेत्र में समाज ओर व्यक्ति की पवित्र साधनाओं को नहीं ले सकती १ एक विधवा के पतित जीवन की श्रपेक्षा, क्या उसके सेवामय, तपस्यय जीवन का चित्रण मंगलकारी नहीं है ?! यह অখাধ से दूसरा समझौता है; यथाथ के भीतर आदश से जो कुछ मिलता जुलता है, उसे हम लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन श्रागे' चलकर वह साहित्य में असुन्दर को भी लेने के लिए तैयार हैं, इख शतं पर कि सुन्दर की सुन्दरता बिगड़ने न पाये। यह वही पहले की बात है कि आदश को हमेशा यथार्थ की गरदंन पर सवार रखा जाय। श्रसुन्दर के सहयोग से सुन्दर श्रौर मी चमक उठता रै, (साहित्य में असुन्दर का प्रवेश केवल इसलिए होना चाद्ये कि सुन्दर को और भी सुन्दर बनाया जा सके |? यथा्थवाद का झँट आदशवाद के तम्बू मे थोडी श्रौर गदंन ठढकेलता है! यथार्थवाद की नयतत ठो




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