डा. ज़ाकिर हुसैन | Daa. Jaakir Husain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पारिवारिक पृष्ठभूमि और प्रारंभिक दर्ष पर उनसे कोई गलत काम न हो जाए और अपनी बराबरी वालों या अपने बड़ों की नजरों में वह गिर न जाएं । जाहिद हुसैन स्वभाव से ही झगड़ालू और दबंग थे और शरीर से भी कहीं ज्यादा ताकतवर डा. ज़ाकिर हुसैन को एक ओर इस बात का खयाल रखना पड़ता था कि उन्हें लोग स्नेहशील और भलेमानस समझें दूसरी ओर अपने भाई के लड़ाकूपन से अपनी रक्षा की भी फिक्र करनी पड़ती थी । ताकत की जगह उन्हें अपनी अक्लमंदी और चतुराई पर ज्यादा भरोसा था । चूंकि वह प्रायः सदा ही सही रास्ते पर चलते थे इसलिये मुजफ्फर हुसैन का भी उन्हें समर्थन प्राप्त रहता था । फिर भी यह खतरा तो बराबर मौजूद रहता ही था कि जाहिद हुसैन कब कोई वार कर दें । पढ़ने लायक उम्र होते ही सभी भाई इटावा के इस्लामिया हाई स्कूल में दाखिल होते गए । यह एक रिहाइशी संस्था थी जिसकी स्थापना 1888 मे मौलवी बशीरुद्दीन ने की थी जो अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ विशुद्ध इस्लामी जिंदगी के हिमायती थे । उसके बारे में उनके विचार एक प्रकार से संकीर्ण ही थे और बच्चों के लिए काफी सख्त-नमाज में शामिल होने पर कड़ी पाबंदी सिर के बालों को फैशन के खिलाफ बहुत छोटे-छोटे ही कटाना सादे मोटे कपड़े सख्त बिछावन और स्वादहीन भोजन । डा. ज़ाकिर हुसैन पांचवी कक्षा में भरती हुए । उसके पहले कि उनकी पढ़ाई घर पर ही ऊंचे मुस्लिम घरानों की प्रथा के अनुसार हो चुकी थी । चार साल चार महीने और चार दिन की उम्र होते ही हर लड़के को घर के मुखिया या किसी बुजुर्ग द्वारा बिस्मिल्लाह कराई जाती थी लिखना शुरू करना और कुरान की कुछ आयतों का पाठ करना सिखाया जाता था | पढ़ाई बगदादी प्राइमर से शुरू करायी जाती थी जो अरबी वर्णमाला सिखाने और बच्चे को कुरान पढ़ाने के लिए सर्वश्रेष्ठ बालपोथी मानी जाती थी । कुरान के कुछ अध्यायों या पूरे ही कुरान की पढ़ाई हो चुकने पर फारसी की शिक्षा शुरू होती थी । इसके लिये भी परंपरा से चली आने वाली उत्कृष्ट पोथियां थी | उर्दू की पढ़ाई बिलकुल अंत में शुरू होती थी | यह क्रम मुस्लिम संस्कृति के परंपरागत विकास का द्योत्क था और साथ ही उस मार्ग का भी जिससे होते हुए वह भारत तक पहुंचा था | स्कूल में डा. ज़ाकिर हुसैन को सभी कायदे-कानून पालन करने वाले के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी नमाजों में और कक्षा में वक्त के पूरे पाबंद थे और शरारतों से दूर रहते थे । स्कूल के पठान लड़कों के अंदर एक ऐंठ रहती थी और बात-बात पर वे बगावत कर बैठते थे | डा. ज़ाकिर हुसैन न उनका साथ देते थे न उनकी मुखालफत करते थे । वह शालीनतापूर्वक मध्यम मार्ग का अवलंबन करते थे । इसके कारण वह अपने सहपाठियों के भी विश्वासपात्र बन गए थे और अपने शिक्षकों के भी । जब कभी भी उनका स्कूल किसी वादविवाद अथवा निबंध प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये अपने विद्यार्थी भेजता था 1 परमात्मा के नाम पर जो कि दयालु और करुणामय है ।




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