भारतीय संस्कृति और साधना | Bhartiya Sanskriti Aur Sadhna

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Bhartiya Sanskriti Aur Sadhna by महामहोपाध्याय डॉ. श्री गोपीनाथ कविराज - Mahamahopadhyaya Dr. Shri Gopinath Kaviraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कास्मीरीय হীন-ব্হান ३ वेदान्त और बौद्धमत की तुलनात्मक आख्ेचना के प्रसंग में गौडपादकारिका में वौदध- भाव का प्रभाव प्रदर्शित किया है | पण्डितप्रवर विशुशेखर शास््री महाझ्य ने इसे और भी स्पष्ट करके दिखल्ाया है | यद्यपि शंकर योगाचार और माध्यमिक मत का खण्डन करते हैं, तथापि अनेक स्थले पर वे स्वयं उनकी उद्धावित युक्ति, यहाँतक कि भाषा भी, ग्रहण करने में नहीं हिचकते ) बौद्धमत और शंकर मत के बीच में केवल एक ही पद का व्यवधान है | परन्तु, इस विपय में एक वात याद रखनी होगी। भारतवर्ष में बीद्धमत भी कोई नवीन मत नहों है । जो यह समझते हैं कि झृन्यवाद नागार्जुन द्वारा प्रवत्तित हुआ है, पहले ऐसा मत नहीं था, वे महासंधिक मत और उपनिपदादि को आलोचना करने पर एवं आगम की प्राचीनता के सम्बन्ध मे विचार करने पर यह समझ सकते ढेँ कि नागार्जुन ने किसी नवे सिद्धान्त का प्रवर्तन नहीं किया है | पहले जो अस्पष्ट एवं आभासरूप में था, उसी को उन्होंने केवल स्पष्ट और प्रणालीवद्ध कर दिया | ... वैयाकरण भी अद्वैतवादी थे। वाक्यपदीयकार! ने मुक्त कण्ठ से कहा है कि व्याकरण का सिद्धान्त अद्वैतवाद है। व्याकरण के मत से अखण्ड चिन्मय झब्द- , तत्त्व दी जगत्‌ का मूल कारण है, यह एक और अभिन्न दै। त्रियुरा-सम्पदाय भी अत्यन्त कब्र अद्वैतवादी है | इनके मत से मूलतत्व मद्दाशक्ति एक एवं अद्वितीय दे | इन सब जद्वेतवादों की विशेषता तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध की आल्येचना करने का यहाँ स्थान नहीं है | पर्त, दन सव सिद्धान्तो से यदह स्पष्ट ही समझा जा सकता है कि प्राचीन काल में अद्रैतवाद के अनेक प्रकार के प्रस्थान ये| व्रह्मदरैत के साथ-साथ यद्वित, यन्द दवेत, याक्ताद्रैत, दशवराद्रैत प्रति विभिन्न प्रकार के अद्वैतसिद्धान्तं उस समय प्रचलित थे । निगम और आगम--बेद और तन्त्र दोनों में अद्देतवाद था, द्वेतवाद भी था, इस विपय में कोई सन्देह का कारण नहीं है| वैदिक सिद्धान्त का मृल्स्थान प्रधानतः उपनिपद्‌ एवं तदवलग्बी दार्यनिक सूत्नग्रन्थ--वियोपरतः ब्ह्मसूत्र है । तान्त्रिक सिद्धान्त के आकर-अन्ध प्राचीन आगमराशि तथा शिवसत्र, शक्तियत्र, परशथुरामकस्ययूज्ञ प्रभति বলাকা ই | হীন) वैष्णव, शाक्तादि भेद से आगम नाना प्रकार के थे। पाश्चरात्र ओर भागवतमत वैष्णवागम-मूलक द । प्र्मिन्ञा ओर स्मन्द-याखर, अर्थात्‌ कारमीरीय त्रिकदर्शन, दक्षिणदेश के सिदधान्त-माख्र प्रति तथा व्याकरण शीवागम से उद्भूत होते हैं। त्रिपुरादि सिद्धान्त शाक्तागममूल्क है। अवश्य ही प्रत्येक सम्प्रदाय के आगमों में भी अनेक प्रकार के विभाग हैं । ५ जद्बाद और ईश्वराद्ययवाद में मेद--आचार्य गीडपाद और शंकर के द्वारा प्रचारित यद्रैतवाद तथा श्रीमदर्भिनवगुप्तादि द्वारा व्याख्यात परमेश्वराइयवाद टीक एक ही प्रकार के नहीं हैं | ब्रह्मवाद माया को सत्‌ एवं असत्‌ दोनो से विलक्षण तथा अनिर्वचनीय मानता ह । किन्त, शीवाचार्य कद्ते हैँ कि इससे द्वेत भंग नहीं होता-। अवच्य ही परमार्थ दृष्टि से माया जब तुच्छ होती है, तब व्यवद्ार-भूमि की सत्यता तथा विचार-भूमि की अनिर्वचनीयता वस्त॒तः अक्ष के अद्वैत-तत्त-का स्पर्श नहीं करती | वह




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