निर्मल कुमार बोस एक घुमक्कड़ विद्वान | Nirmal Kumaar Bosa Eka Ghumakkad Vidvaan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पालन-पोषण न रखने का निर्णय लिया और उसे छोड़ दिया। सी एफ.एंड्रयूस के सुझाव पर बोस और उनके दो मित्रों ने ट्रिनिडाड फीज़ी मारिशिस और दक्षिण अफ्रीका से 1921 में लौटे अनुबंधित भारतीय मजदूरों के लिए सैकेंड सेंट जॉन्स एम्बूलैंस ब्रिगेड की ओर से शिविर की स्थापना की । पांच महीने तक वह उस शिविर के एकमात्र प्रभारी रहे । उनकी सामाजिक तथ्यों का गंभीर सर्वेक्षण करने की उमंग को अवसर मिला और उन्होंने 450 परिवारों के 1050 सदस्यों की सामाजिक पृष्ठभूमि की विस्तृत संगणना कर डाली। भारतीय ग्रामीण समाज इंडीज़ से लौटे इन अनुबंधित श्रमिकों के आत्मसातीकरण और उनके पुनर्स्थापन के मार्ग में किस प्रकार बाधक हो रहा या इसके संबंध में हमें इस सर्वेक्षण से प्रचुर सूचनाएं मिलती हैं। कलकंत्ता छोड़ कर बोस पुरी चले आये जहां उनकी मां निवास करती थीं। अपने ढंग से उन्होंने अध्ययन को जारी रखा और असहयोग आंदोलन की गतिविधियों से भी जुड़े रहे। उन्होंने देखा कि गांधी ने एक विशिष्ट भूमिका निभाते हुए उस आंदोलन को एक निश्चित दिशा दी है। इसी दौरान पुरी के मंदिरों की वास्तुकला और मुूर्तिकला में भी उनकी गहरी रुचि पैदा हुई और तत्पश्चात कोणार्क और भुवनेश्वर के मंदिरों में भी । उन्हें केवल मूर्तियों और मंदिरों की वास्तुकला की विशिष्टता और सौंदर्य ने ही प्रभावित नहीं किया बल्कि एक वैज्ञानिक होने के नाते वे वास्तुकला के मूल सिद्धांतों की खोज में लग गये। अपने इस अध्ययन के दौरान उनकी मुलाकात शिल्पियों के एक समूह से हुई जो परंपरागत रूप से पत्थर तराशने और मंदिर निर्माण का कार्य करते थे। उनमें से शिल्पकार राम महाराणा ने उड़ीसा के मंदिरों को वास्तुकला के मूल सिद्धांत के बारे में बोस को बहुत सी सूचनाएं दीं । उन्होंने कुछ पुरानी पांडुलिपियां भी खोज निकाली जिनको उन्होंने टिप्पणी सहित एक पुस्तक उड़ीसा वास्तुकला के सिद्धांत के रूप में 1932 में अनुवादित कर प्रकाशित किया। कोणार्क और अन्य मंदिरों पर उन्होंने बांग्ला भाषा में कई लेख लिखे । कुमार बोस एक जन्मजात शिक्षक थे उनकी वाणी प्रभावी थी। उन्होंने प्रभावशाली ढंग से लेखन-कार्य किया परंतु उनका वास्तविक प्रभाव एक वक्ता और विवेचक के रूप में था। उनका विचार था कि कलकत्ता और बंगाल के अन्य स्थानों से पुरी आने वाले लोगों को उड़ीसा में मंदिरों के संबंध में व्यापक सूचना होनी चाहिए। इसलिए उन्होने पर्यटकों को उड़ीसा के मंदिरों पर भाषण देना आरंभ किया। ऐसे ही एक भाषण में आशुतोष मुखर्जी भी उपस्थित थे। बोस के प्रस्तुतीकरण कौशल और स्पष्टता से वे बहुत प्रभावित हुए। उनसे बातचीत करने पर जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि 1921 में प्रेसीडेंसी कालेज बोस ने महात्मा गांधी के आत््वान पर छोड़ा है तो उन्होंने यह प्रयत्न किया कि वे विश्वविद्यालय में पुन अध्ययन आरंभ करें । निर्मल ने उन्हें बताया कि वे राजकीय महाविद्यालय में वापस न जाने का निर्णय कर चुके हैं। सर आशुतोष उन दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान-विभाग ८. की




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