काव्यांगिनी | Kavyangini

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Kavyangini by राजरकर - Rajrakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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केदारनाथ श्रग्रवाल अपनी कविताओं में ऋनति की पुकार लगा रहै थे । पुकार जन शोपण के विरुद्ध की गई थी--- “आज जनता के सिपाही दौड़ जनता है विकलतर मृच्छना तो है पराजय चेतना है जीत प्रियतर 1 = जन गोपक व्यवस्था जिसके अखि-कान नहीं है। जो जनकी दुदणाको नही देखती उसकी पीड़ा को नहीं सुनती । वह हाथ-पावों से निकम्मी है और परजीवी है, श्रम का महत्त्व वहाँ नहीं है । केदारनाथ अग्रवाल प्रतीकात्मक शैली में इस व्यवस्था को ध्वस्त करने का श्राह्वान करते हैं-- “पत्थर के सिर पर दे मारो अपना लोहा बह पत्थर जो राहु रोक कर पड़ा সং हा >< < >< जो कि प्रार्थना और प्रेम से एक इच भी नहीं डिग्रा है जिसकी ठोकर खात्ते-खाते इन्सानों की टुकड़ी टूटी ।” इन कवियों की दप्टि में 'गान्धीवाद' का हृदय परिव्तेन का सिद्धान्त सार्थक नही है, इसलिए व्यवस्था परिवर्तन ऋान्ति से ही सम्भव है, हृदय परिवर्तन के माध्यम से नहों, क्योंकि पूजीवाद के कुछ अंतर्निहित बुनियादी स्वार्थ है, जिन से वर्ग संघर्ष होता है-- “पू'जीपति अपने बेटे को वेहद काला दिल देता है सिरहाने रखकर सोने को रोकड़ खाते सब देता है गरदन काट कलम देता है । > >< > जब तक जीता रहता है দাদ की शिक्षा देता है । 8 [छाव्यांगिनी




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