संकट कालीन चिकित्सा | Sankant Kalin Chikista

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Book Image : संकट कालीन चिकित्सा  - Sankant Kalin Chikista

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व पी व 'पाजा, अफीम, कुचला, वत्सवाभ, धतूरा आदि) का पुक्ति रधक प्रणो करके वेदना का निवांरण किया जा सकता है। ५+.~ ~ [ष ও. धातु संरक्षण--- घातु शरीर का धारण करते हैं, इस घारण-क्रम में । इनका निरन्तर क्षय होता है, जिसकी पूर्ति आहार के माध्यम से दोही रदत है फभौ-२ किसी विशेष रोग में था विशिष्ट आागस्तुक कारणों से घातुंबों का क्षय तीज्रगति से होमे शगता है, जिसके परिणाम-स्वरूप प्राणों पर सद्धूठ आ जाता है । किसी भी घातु का बत्यधिक क्षय होने पर है हुसरे- धातु भौ प्रभावित होकर क्षीणता को प्राप्त होते हैं ' यो तो किसी भी शात्‌ का क्षय होना शरीर के लिये हानि- कारक है फिर भी रस, रक्त और शुक्र का लेय जब भो होता है-तीद्षग्ि से होता है, भतः इनका क्षय अधिक प्राणघातक है। यदि इनकी स्थिति ठीक हो तो अन्य घातुओं के क्षय की ध्यूताधिक रूप में इतके द्वारा पूर्ति होते रहने मे श्राणघातक, स्थिति शीघ्र नहीं आ सफती । सतः शरीर दे तिकलते हुये रस, रक्त एवं शुक्र को तत्काल रोफदे केः प्रयत्त करने चाहिये । यही नहीं रस मो के स्वरूप में शर्वाधिक अंश जलीय है भस: वमत, अतिसार आदि में इसके अत्यधिक दोय से रस छौर रक्त अत्यन्त प्रभरावित होते हैं । इंसलिए जलीयांश का संरक्षण और तर्पण क्रिया से शरीर में पुरण का श्रयत्त करना चाहिए। रस, रक्त, - शक्त ओर लीरा कै संरक्षण सौर्‌ पूरण कै सायम्‌ बन्य घातुओं के संरक्षण भोर पूरण की व्यवस्था भी करनी . ष्‌ ये 1 ~ ८, खभुचति पोषण-- यद्यपि यह धातु संरक्षण का ही उपक्रम है, फिर नी इसके सहत्व को देखते हुए इसका पृथक्‌ उत्लेख किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि शरीर भाने वाली व्याधयो भौर सद्युटस्वरूपक घक्षणों ङे निवारण फा स्वयं प्रयत्न करता है । इसके कारण शरीर के विभिन्म तत्त्वो क़ क्षय होया ই পা अनेक अवयदों में शिथ्िन्षता आजाती हैं । इसलिए ऐसी स्थिति में शरोर को अधिक पोषक त्त्वां की आवश्यकता होती है, लेकिन उसकी भरिन मे उतनी प्रद्धरता मही रहतो कि वह गुर, श्विग्ध एवं सान्द्र थदा्थों न्ना 9६ || को पा सके 4 साथ ही धातुओं और शरौरावययों में भौ:. इतना शैधिल्‍ल्य और निष्क्रियता मा जाती है कि वे पोषण: की लम्बी प्रक्रिया की प्रतीक्षा घंही कर सकते । अतः रोगी एकं रोय की स्थिि.को देखते हुएु दीपन, पाचन, लषु, द्रव एवं पौष्टिक तत्त्वों से युक्त आहार का प्रयोग मात्रापूर्वक करे । जहां तक हो सके सौम्य एवं द्रवात्मक नाहार को प्रायमिरता देनी घाहिए । २, मल-धिसर्वत-- व दोप-दूष्य सम्मूच्छना की प्रक्रिया कै परिणामस्वरूश शरीर मे मभल-विसर्जेत की प्रक्रिया नाधित হীবী ই 1. मत नियमित रूप से विसृष्ट होने वलति मल सोतसमे हीः. सस्चित होरे छगते द । इसके अतिरिक्त रोग के निवारण की प्रक्रिया थें भाग लेने वाले धातुओं और अवयर्तों. में इस प्रक्रिया के कारण. मलस्वरूपक विविध, विष सब्चित होते - रहते हैं। साथ ही कुछ शीघ्र प्रभावी तील़ औषधियों के ' विष-का भी सम्बय होते रहने सै शरीर मैंल का आगार बन जाता है। अतः ऐसे प्रथत्त करने चाहिये कि सृत्र, , पुरीष एवं स्वेद मादि के माध्यम से अधिक से अधिक मत उत्सुष्ट हो आय । इससे सद्भूट-निवारण में ' सहयोग मिलता है । ' १०. अतिशीत या नति उष्णं स्थिति का मिवारण-+ . - स्वस्थ शरीर का एक नियत तायक्रम होता है. जिसका नियन्त्रण प्राङत दोष मौर घातुके सहयोग से णरौस् विभिन्न अवययों द्वारा होवा है! यदि. विङृतिवश्न शरीर में मतिशीत या अति उष्ण स्थिति आजाय तो उसको निवारण भमास्यस्वर प्रयोगौ पतया वाह्यं उपक्रमो दरार करता चाहिए ! मन्यथा জ্বী ्राणान्त हौ सकता & 1 ११. सत्वावजय-- रोगी ओर रग की चाद जो स्थिति हो उसका मत अस्थिर एवं भयग्रस्त नहीं दीना चाहिये । অল: अहिच मर्थों (शब्द स्पर्शादि) से गेत का सबंदा निग्रह करना अावश्यक है । । उपवहार-- ¶१-रोरमें प्राणों की स्विति का होना प्रायमिक है, সপ “शेषाश पृष्ठ १६ पर दे, है. सेकटकादीद चिकित्सा के घिद्धान्व #




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