ज्ञान का विद्या - सागर | Gyan Ka Vidya - Sagar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
399
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीमती रमा जैन - Shree Mati Rama Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२
तुम पद-पकज मे अलि बन सुर-पति गण करता गुन-गुन है,
गोमटेश प्रभु के प्रति प्रतिपल वन्दन अपति तन-मन है ॥५॥
अम्बर तज अम्बर-तल थित हो दिग अम्बर नहि भीत रहे,
अम्बर आदिक विषयन से अति विरत रहे, भव भीत रहें ।
सर्पादिकं से धिरे हुए पर अकम्प निश्चल शेन रहे,
गोमटेश स्वीकार नमन हो धूलता मनका मैल रहे।६॥
आशा तुम को छू नहि सकती समदर्शन के शासक हो,
जग के विषयन में वाछा नहिं दोष मूल के नाशक हो।
भरत-भ्रात मे शल्य नहीं अब विगत-राग हो रोष जला,
गोमटेश तुम मे मम इस विध सतत राग हो, होत चला ॥७॥
काम-धाम से धन-क्चन से सकल सग से दुर हुए,
शूर हुए मद मोह्-मार कर समता से भरपूर हए)
एक वषं तक एक थान थित निराहार उपवास किये,
इसीलिए बस गोमटेश जिन मम मनमे अब वास किये ॥5८॥
बोहा
नेमिचन्द्र गुरु ने किया प्राकृत में गुण-गान,
गोमटेश थुति अब किया भाषा-मय सुख खान ।१॥
गोमटेश कं चरण मे नत हो बारंबार,
विद्यासागर कब बनू भवसागर कर पार ॥२॥
॥ इति शुभं भूयात् ॥
क्जाशा के तुम पोषक नहि हो समदशंन के शासक हो ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...