जैन धर्म और मूर्ति पूजा [उपासना रहस्य] | Jain Dharma Aur Murti Puja [Upasana Rahasya]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ (न के क क, ५१ सवे प्रकार के बिकल्‍प भाव मिटकर ध्याना श्रोर এস दोनों एकही रूप हाज़ाते हैं । इससे प्रकटहे कि अहृतोकी उपासनाका मूल उद्देश्य केबल यही है कि आत्माकी जिन स्वाभाविक शक्तियों को उन्होंने विकसित कर्मलियाहि बेही हममेंभी पृरग॑रूपसे विकासको प्राप्तह्यजावें तत्वार्थ मृत्रमे कटा भी हः- मा्तमागस्यनेनारं मसागकममृगरतां जञातार- विश्रनस्वानां वेदे तदृ गुण नव्यय- अथात সীন্বলাগ के नेता, कम रूपी पवतो के तोड़ने वाले ओर संसार के तत्वों के जानन वाल अर्हतो कौ, उनक गुणोकी प्राति के लिये, वंदना करतां । यथपि टम प्रकार की उपासना के दाग ज्रात्मिकं शक्तियों का विकास होजाने से परिखाम' रूपस लोकिक प्रयोजनों की भी सिद्धि हांती अवश्य है किन्तु यह बात ध्यान में रखलीजिय कि जो लोग लोकिक प्रयोजनोंकी पूर्तिकोलिये, सांसारिक इच्छाओं को पूरे करने की ग़रज से, अहंतो की पृजाभाक्ति करते हैं तथा तरह २ के प्रण ओर सोगन्ध लेने है, केसारियानाथजी, महावीरजी, शिख रजी, गिरनारजी भ्रादिकी वोलारियां . बोलतहे आर उनको आशा दिलातेह कि हमारे अमुक कार्य की सिद्धि ही जाने पर हम आपके दर्शन करने आबेंग और छत्र चामरादि सुन्दर २ उपकरण चढ़ावेंगें: जो बीमारी और आहे दूसरी




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