रीति काव्य के स्त्रोत | Reeti Kavya Ke Istrot

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Reeti Kavya Ke Istrot by रामजी मिश्र - Ramji Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२) रीतिकाव्य वा प्रणयन प्राय शास्त्रस्थिति सपादन के लिए हुआ। भत उस पर पूववर्ती काव्यक्षास्त्रीय प्रथा का प्रमाव पर्याप्त मात्रा में मिलता है। जि हने रौतियास्त्र के ग्रव लिखे उनके लिए झास्त्रस्थिति सपादन श्रनिवाय था । पर यही यह भी ध्यान म॑ रखना है कि उनके उदाहरण सवत्र भ्रनुवदन नहीं है । सिद्धात पक्ष म भी रौतिशास्त्र उल्या नही है। व्यवितित्व के न उमरने वी चर्चा भी होती है। पर विसी घारा म सवन व्यक्तित्व वा उभार नहीं होता । व्यक्तिप्व वी पुकार झ्रावुनिक है। रस सप्रदाय तो साधारणीक रण का उपासक रहा है, भसाधारणीकरण का नही। व्यक्तित्व के उमार वी खोज करत॑ हुए इधर भी दृष्टि रखनी चाहिए। फ्रि मी कौन कह सकता कि मतिराम और पद्माकर का व्यक्तित्व एक सा है। चितामणि और मतिराम भाई थे, पर ये दोना भी एक्रुप नहीं हैं। (३) रीतिकाय वग विशेष का चित्र उपस्थित करता है।' यह विचारणीय वग भावना मी साम्प्रतिक है । जिस परिवश म कोई रहता है उसना प्रमाव हीता ही है । भ्राण उपयास-बहानिया म ग्रथिक्तर विशिष्ट वग युवा-वग मध्यम वग, विद्यार्थी वग ही ब्यो विजित होता ह्‌ ? मिथुन वत्ति वी ही चर्चा विशेष बया रहती है । यह सब रीति बाव्य मे सवत्र सोहेइय नहीं है। आज सोददेश्य अधिक है। दसलिए वग साहित्य नाम बग भावना वाले ही देने लग है उस । (४) महावाष्य और मुवतक के सवध म भी यह विचारणीय है कि समय वी गति क साथ प्रयधा से मुवतक वी प्रवत्ति बढ रही है। भव तो मुवतका और उनम भी गीतो का ही সনথ काव्या से उत्तम वहा जा रहा है। इसी का फ्त यह भी हैकि सूर सागरः को महाङ्ा-य तव कहा जानि लया है) महावा प ग्रोर मुक्तक भारतीय साहित्य शास्त वै पारिमापिक शल रै। उनका मनमानां प्रयोग नह्‌ वियाजा सक्ता । मूरसागर क्यो महाकाव्य से उत्कृष्ट रचना कोइ कहना चाहे तो कह पर उस्ते प्रववकाव्य या महा काय नही कहा जा सकता । किसी कया प्रं सहारे प्रवायका य भी लिखा जा सत्ता हैं भर मुकतक वाय भी, क्सी मुक्तक क।“य मे क्सी कथा की सारी की सारी घटनाएँ भरा जाने पर भी वह मुक्तक ही रहंगा। किसी कथा वी वुछ ही बात आन पर भी ऋम- बढ़ता ঘা सचियोजना से वह प्रवध हो होगा । नपधचरित मे विवाह की ही कथा है पर वह प्रवध हैं महाका य है। सूरसागर म श्रीकृष्ण का सारा जीवन वृत्त आ गया है पर बह मुक्तक ही है। इन नामा कर सेत स्वरूप विशेष की श्रोर हैं। इसलिए নু सागर को ग्रवधात्मक मुत्तक भी नही कह सकते । सपूण जीवन कथात्मर मुबतक' कहिए प्रवधात्मक मुक्तके गही -- बह्वपि स्वेच्छया काम श्रकीण मभिधीयत । अनुज्किताथ सबंध प्रवधो दुर्दाहर ॥ भवधम श्रनुञ्मिताय सववहोनाटक्या या! यह मूरयागरम नही ह। उन्मि ताव सम्बध दोन से यद मुफ्तक ही है । 'प्रवाध' महादाय मी होता ই অত্বাদ শী होता हू । इसलिए बरव रामायण और इृष्ण गीतावली का भी खड़काब्य नही कहा जा




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