न्याय - शिक्षा | Nyay - Shiksha

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Nyay - Shiksha by न्यायविजय जी - Nyayvijay Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अहम शाखविशारद-जैनाचाय औविनयपर्मसूरिम्मो नमः ९ ০১১ (©) | (४2 ८८ 6... नैनसिद्धान्तम वस्तुका अधिगम-परिचय; प्रमाण ष नयसे माना ६। उनम, प्रमाण किसे कते हे ?, भमाणक्ते कितने भकार हैं), प्रमाणका प्रयोजन क्या ई १, ममाणका विषय वैसा है ), इत्यादि प्रथम प्रभाण सवधी विचार किये जाते हैं- ज्ञान विशेषका नाम प्रमाण दै, जिससे यथास्थित घसतु- का परिचय हो, उसे प्रमाण कहते हे । प्रमाण, शान छोड़ जड़ बस्तु हो ही नहीं छकती, क्योंकि जड़ पदाय खुद संज्ञान रूप है तो दूसरेका प्रकाश करनेक्ी श्रधानता कैसे पा सकता है ? | जैसे प्रकाशस्व॒रूप प्रदीप, दूसरेंका प्रकाशक उन सकता है, वैसे स्वसवेदन क्षान दी दसरेका निधायक दो सक्ता ह । नो वक्तु खुद श जाञ्य अकां इव रहो है, वह दूसरेका प्रकाश क्या खाक करेगी,इस लिय स्वसवेदनरूप ज्ञान ही दूसेरका प्रकाश करने- की प्रधानता रख सकता है । इसीसे ज्ञान दी ममाण कह जाता €, न कि पूर्वोक्त युक्तिते इद्धिपसनिकर्पादिं । सदकारि कारणता तो इसमें कौन नहीं मान सकेगा ? । एवच ज्ञान मान, स्वसवेद- नरूप होनेते, सदेद-धम कीर ঘানার प्रमाण पदका व्यवहार इटानेके लिये वाह्य-बटादि वस्तुका यथाये परिचय कराने वाले ( निर्णय-ज्ञान ) को प्रमाण कहा है। वह कौन ?, उपयोग- *




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