न्याय - शिक्षा | Nyay - Shiksha
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
790 KB
कुल पष्ठ :
54
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अहम
शाखविशारद-जैनाचाय औविनयपर्मसूरिम्मो नमः
९ ০১১ (©) | (४2 ८८ 6...
नैनसिद्धान्तम वस्तुका अधिगम-परिचय; प्रमाण ष
नयसे माना ६। उनम, प्रमाण किसे कते हे ?, भमाणक्ते कितने
भकार हैं), प्रमाणका प्रयोजन क्या ई १, ममाणका विषय वैसा
है ), इत्यादि प्रथम प्रभाण सवधी विचार किये जाते हैं-
ज्ञान विशेषका नाम प्रमाण दै, जिससे यथास्थित घसतु-
का परिचय हो, उसे प्रमाण कहते हे । प्रमाण, शान छोड़ जड़
बस्तु हो ही नहीं छकती, क्योंकि जड़ पदाय खुद संज्ञान रूप
है तो दूसरेका प्रकाश करनेक्ी श्रधानता कैसे पा सकता है ? |
जैसे प्रकाशस्व॒रूप प्रदीप, दूसरेंका प्रकाशक उन सकता है, वैसे
स्वसवेदन क्षान दी दसरेका निधायक दो सक्ता ह । नो वक्तु
खुद श जाञ्य अकां इव रहो है, वह दूसरेका प्रकाश क्या
खाक करेगी,इस लिय स्वसवेदनरूप ज्ञान ही दूसेरका प्रकाश करने-
की प्रधानता रख सकता है । इसीसे ज्ञान दी ममाण कह जाता €,
न कि पूर्वोक्त युक्तिते इद्धिपसनिकर्पादिं । सदकारि कारणता
तो इसमें कौन नहीं मान सकेगा ? । एवच ज्ञान मान, स्वसवेद-
नरूप होनेते, सदेद-धम कीर ঘানার प्रमाण पदका व्यवहार
इटानेके लिये वाह्य-बटादि वस्तुका यथाये परिचय कराने वाले
( निर्णय-ज्ञान ) को प्रमाण कहा है। वह कौन ?, उपयोग- *
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