जैन आचार्य चरितावली | Jain Aachaary Charitaavalii

Jain Aachaary Charitaavalii by आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज - Acharya Shri Hastimalji Maharaj

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राजसिंह राठोर -Rajsingh Rathor

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्राचायं दरितावली ५ || लावी ॥ वित्तहारो श्रव दमत हरने वाला, कमशुर से धमशुर हग्रा भ्राला । ज्ञान क्रिया ते शासन को दीपाय भ्रपने पद पर पटधारी नहीं पाया, श्र तबल से श्रागे को बात बिचारी ॥ लेकर ० ।।६।। प्रथ --विध्य-नरेण का प्रिय पुत्र प्रभवसिह जो कभी चोर के रूप में कुब्यात था, वही प्रव दमति हगनेवाना सतः तो गया, दुष्कर्मकर्त्ता धर्म - नेता बन गया। उन्होने ग्यारह वर्ष तक সালা पद पर रहकर ज्ञान-क्रिया से शासन को दीपाया । अन्त में अपने पद पर योग्य उत्तराधिकारी को न पाकर श्रतज्ञान के बल से भविष्य की बात सोचने लगा ॥६।॥। ॥ लावरणी ॥ राजगृह में शब्यमव को जाना, प्रतिबोधन हित मुनि हथ को भिजवाना। भ्रा सनि बोले तत्त्व न जाना भाई, सुनकर चोके याज्ञिक मन के मांहों । कहे गरु से सत्य बात कहो सारो ॥ लेकर ० ॥७॥। क्रथ -आचार्ग प्रभव ने थतज्ञान में उप्रोग लगाकर राजगृहीकै शय्यंभव भट्ट को योग्य उत्तराधिकारी समझा । फलस्वरूप उसको प्रतिवोध देने के लिये मुनियुगल को प्र पित किया । शस्गभव ক ভাল নক पहुँच कर मुनियो न कटा,- “हा कष्टं तत्वं न ज्ञात” । याज्ञिक गय्यंभव इस बात को सुनकर मन ही मन चोंका आर कलाचारय के पाथ जाकर पूछने लगा, “सत्य वतलाग्रा तत्व क्या है ? ” ॥। ॥॥ ॥ लावरणी ॥ कलाचाय भयभीत कहे सुन स्याना, तरव जिनेश्वर माग रतो नाह छाना । प्रभवसुरि से मेद समभकर जानो, दृ्बमुक्ति का मागं वही पहिचारो। यज्ञ दिलावे स्वग न मवभय हारी ॥ लेकर० ।।८॥




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