निराला के गद्य साहित्य में स्वाधीनता की चेतना का स्वरूप | Nirala Ke Gaddya Sahitya Me Swadheenta Ki Chetna Ka Swarup

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Nirala Ke Gaddya Sahitya Me Swadheenta Ki Chetna Ka Swarup by नन्दिता सिंह - Nandita Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16 _बांधव समिति” की स्थापना कौ गई । यह स्वदेशी आन्दोलन सन्‌ 1908 तक चला था और इसकी केन्द्रीय धुरी बंगाल ही रही है। सन्‌ 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका ने भारतीय स्वदेशी आन्दोलन को और भी बल दिया और विशेष रूप से प्रवासी भारतीयों ने 1911 से लेकर 1915 तक अमेरिका में रहकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति आक्रोश तथा गरमाहट का वातावरण बनाया और इसके नायक लाला हरदयाल के सन्‌ 1913 में सान्‌फ्रैंसिकों (अमेरिका) से “गदर नाम से एक उर्दू में पत्रिका निकाली और फिर यह गुरूमुखी में निकली और इस आन्दोलन का लक्ष्य भारत से अंग्रजों को भगाना था-इसका भारत पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इसे गदर या क्रांति के नाम से पुकारा गया। सन्‌ 1915-16 में होमरूल लीग' आन्दोलन का जन्म हुआ। इसके माध्यम से भारतीयों ने अंग्रेजी प्रशासन में अपनी जिम्मेदारी माँगी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी माँग की। पूरे देश भर में 'होम रूल लीग' आन्दोलन का प्रभाव दिखाई पड़ा। होम रूल लीग में भारत में जिन सुधारों की बात कही गई थी, उसमें से दबे मन से कुछ को अंग्रेजों द्वारा स्वीकार किया भी गया। इस आन्दोलन की सबसे बडी विशेषता यह है कि इससे देश की स्वाधीनता के लिए एक व्यापक जुझारू मच तैयार हुआ और प्रायः भारत में राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आन्दोलन का भाव उपजा। यह आन्दोलन लगभग 1919 में समाप्त हुआ। इसी सन्दर्भ में यह भी स्मरणीय है कि गाँधी जी ने 1919 में सबसे पहली बार देश में सत्याग्रह आन्दोलन की शुरुआत की। गाँधी जी अफ्रीका से भारत सन्‌ 1915 में लौटे थे उन्होंने सन्‌ 1917 से सन्‌ 1919 तक चम्पारन (बिहारी नील की खेती) अहमदाबाद और खेड़ा (गुजरात) (मजदूरों का आन्दोलन) में संघर्ष की शुरुआत की। देश में भारतीयों की तथाकथित आतंकवादी गतिविधियों को दबाने तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अंग्रेजों ने 1919 में रौलेट एक्ट लगाया था-जिसका सर्वप्रथम विरोध गाँधी जी ने प्रारम्भ किया। गाँधी जी ने इसके लिए सत्याग्रह का आधार ग्रहण किया था और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियाँवाला बागकांड पंजाब में हुआ। सन्‌ 1920 में 1 भारत का स्वतन्त्रता संघर्ष, प्रो. विपिनचन्द्र, पृ. 24, 27




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