कालजयो एक पुरुष | Kaljayo Ek Purush

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Kaljayo Ek Purush by गंगानारायण त्रिपाठी -Ganganarayan Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिमावृत्त भग्ति पुरुष ७ इसकी इस तरह पृष्टि की है--मनुष्य का जन्म लेना सार्थक होता है, जो औरों के लिए जीता हैं। धर्म के लिए मरने वाला ही शूर है |” कबीर ने कहा है--+ “सूरा सो पहुचानिए लड़े धरम के देत, पुर्जा-पुर्जा कटि मरे, तऊ न छांड़े खेल ।”” तो क्या सत्य नहीं कि उसने कबीर को उसके परम्परावादी अनुयायियों अथवा साहित्य की बधिया उधेड़ने वाले जिज्ञासुओं की अपेक्षा अधिक सच्चे अर्थों में पढ़ा था, तथा इस अर्थ को जीवन में ग्रहण भी किया था। बाह्य धर्म में तो वह खरा उतरा, पर अन्दर में भी वह्ठ सदैव स्वच्छता और सोन्‍्दर्य का पुजारी ही रहा । यह पूजा की झावता क्या उसके बाह्य सरल छूप की देत तद्ठीं थी ? उत्ती के जनुज और परमप्रिय फक्कड़ साथी श्री बालक्ृष्ण शर्मा नवीच' की तुलिका से अनुरंजित चित्र की यह झलक देखिए-- उनकी मुखाकृति सुन्दर थी, अत्यन्त संवेदनशील नासा, तैजपूर्ण नेत्र, सूक्षम- ग्राही चेतवाबान अघर, हृढ़ चिबुक, स्थिर संकल्पपूर्ण जबड़े, चिन्तन कष्ट तप रेस मंडित भाव प्रदेश, खह्र की घोती-क्ुर्ता जिसका ऊपर का बटन खुला हुआ । कभी तरन सिर, कभी धद्दर की गाँधी टोपी, कभी भले में दुपद्गा, अधिकतर नहीं, आाकर्षणयुक्त मुस्कान, तेत्रों से श्ॉकती हुई कझंणा, निश्छलता, जल्दी-जल्दी निर्भीक डग भरते हुए चलना, आड्म्बर की आत्यान्तिक शून्यता, मुक्त हांस, कुछ ऐसा था गणेश जी का स्वरूप} व्यक्ति का पहला कर्मक्षेत्र घर होता है। घर में चाहिए नमक, तेल, लकडी १ गणेश जी इसे पूरी तरह कभी जुटा नहीं सके । कभी बच्चों को दूध मिला, कभी नही | घर भी इतना छोदा कि सारे परिवार को एक साथ सोने की मुश्किल । बच्चा बीमार हो ख पत्ते, पिता बीभार हो या स्वयं, पर सूल्यवान मोषष्ठि गौर पौष्टिक भोजेनकी प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा आजीवत रही । भकर्थ संचय के ताम १९ रोज क्षुओं खोदभा और रोज पानी पीता । आज सन्ध्या समाप्त हुई तो अमेक कार्यो को आर्थिक चिन्ता लेकर कल का प्रभात भा गया ! अभावों की ऐसी असफल गुहुस्थी में उनका संतोष चिर जीवित रहा । गरहस्थी का জর, अगर पारिवारिक स्नेह, शांति और हंस-हंस कर जीवन काटता है तो निश्चय ही वे सद-गृहस्थ थे । बड़ों की सेवा में उवको श्रद्धा निरन्तर परिलक्षित होती थी। पमवयस्कों के लिये मैत्नी-भाव की स्निग्ध घां बहती थी। बच्चों के संग वे अपने को ही भूल जाते थे। अगर सवा का सवाल है तो उन जैसा तीमारदारी करने वाले बिरले ही होते हैं। उनकी सेवा भावना अनूठी थी । इसकी एक झलक पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी जी के इन शब्दों में मिलती है--- “सत्याग्रह आअ्म को बात है । लड़के को तेज बुखार भा गया था। मैं घबरा गया । डाक्टर चार-पाँच मौल पर रहते थे | बंधुवर हरिमाऊ उपाध्याय के पास गया | वें लेख लिखने में व्यस्त थे । ज्योंदी मैंने जिक्र किया, उन्होंने तुरन्त ही कलम रख दी और साथ चल दिये। डाक्टर आये। लड़का स्वस्थ हो गया। मैंने हरिभाऊ जो से कहा-आप उस दिन फौरन ही मेरे साथ चल दिये, इससे मुझे बड़ा हर्ष हुआ । उन्दोने कहा--गह बात मैंने गणेश जो से सोखी चाहे बेसा जरूरी काम दे कर रहे हों पर




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