मेरा जीवन प्रवाह | Mera Jiivan Pravaah

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Mera Jiivan Pravaah by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वे तीअं-स्वरूप ड उत्साह ओर उत्सव में बीतता था। मकरसंक्रान्ति के दिन, सिंघाड़ी नदी पर, बढ़े तड़के हम लोग पवस्‍्नान करने जाते थे । मेरी नानी संक्रान्ति पर नाना प्रकार के पकवान बनाया करती थीं । आषाढ़ में ओरत गाँव के बाहर, देवो-देवतों के मंदिरों के आसपास, गकड़ियाँ ८ बाटियाँ ) खाने जाती । सादें ( पके आम ) वहाँ खूब चूसने को मिलती थीं। सावन की कजक्नियों की सवारी भी धूमधाम से निकलती थी। कृष्ण- जन्माष्टमी की ङी हमारे घर पर सजादं जाती थी । गान-वाद्य के साथ सात-झाठ दिन हम लोग नन्दोरक्षव मनाते थे। मुझे याद दे कि एक रेसे ही उत्सव पर मेरे उदार हदय नाना ने भक्ति-विह्ज्न होकर घर का बहुत-सारा चाँद! का जेवर कीत्तन करनेवाल्ों को दे दिया था। फिर राम- ज्ञीला के दिन आ्राजाते | महीनों से में रामज्लीज्ञा की बाट जोहता था। “जलन -विद्वार 'का मेल्ला तो हमारे यहाँ का दूर-दृरतक प्रसिद्ध था । मोहरंम भी खूब घूम्रधाम से मनाया जाता था । हमारे छतरपुर के ताज़िये मशहूर थे, ओर अ्रब भी हैं । ऊदलघिंह का अ्रबरख का ताज़िया कितना कल्ना- पूर्ण बनता था! हिन्दू-मुसलमान के बीच तनावट का तब काई सवाल ही नहीं था, ओर आज भी उधर यह ज़द्दर नहीं पहुँच पाया। एक-दूसरे के त्यौद्दारों में हिन्दू ओर मुसलमान बढ़े प्रेम से द्िस्सा लेते थे । ताज्ियों के मेले में दम छोटे-छोटे बच्चे रेवढ़ियाँ श्रोर मसाला खरीदते थे । यह मेरे जन्मस्थान छुतरपुर की बाल-कट्दानी है। छतरपुर बुन्देल- खण्ड को एक छोटो-सी रियासत थी । वर्ह, संवत्‌ १६२ दी राम- नवमी के दिन, एक गरीब ब्राह्मण-कुल मं मेरा जन्म ह्या । इह ॒या सात महद्दीने का था कि पिता का स्वरगंवास होगया। लाल्नन-पालन सेर




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