जैन इतिहास की पूर्व पीठिका और हमारा अभ्युत्थान | Jain Itihas Ki Purv Pithika Aur Hamara Abhyutthan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)৫] जैन इतिहासकी पूर्व-पीठिका
प्रकारकी आवश्यकताये कल्पवृक्षोसे ही पूरी दोज्ञाया करती थीं |
अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पण्य और पाप दोनों
भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं। व्यक्तिगत संम्पक्तिका कोई भाव नहीं
था ' मेरा ” और “ तेरा ' ऐसा भद्भाव नहीं था| यह अवस्था
भोगभूषिकी थी | क्रमशः यष्ट अवस्था बद्री । कब्पवृक्षोका
टोप होगया । मनुष्याको अपनी मावद्यकताभाकी पूर्तिके चि
भम करना पड़ा । व्यक्तिगत समस्पत्तिका भाव जागृत हुआ । षि
आदि उद्यम प्रारम्भ हुए। लेखन आदि कलाओका प्रादुभाव हुआ,
इत्यादि । शस प्रकार कमभूमिका प्रारम्भ हुआ। शुद्ध ऐतिहासिक
टष्टिसि विचार करनेपर शात होता है कि इस भोगभूमिके परिव-
तेनमे कोई अस्वाभाविक्रता नहीं है। बारिकि यद् आधुनिक सभ्य-
ताका अच्छा प्राराभ्मिक इतिहास है। जिन्होंने सुवर्णकाल
( ००१९४ 9४८ ) के प्राकृतिक जीवन ( 1.16 ४००० ०1४
10 1३००० ) का कुछ वर्णन पढा होगा वे समझ सकते है के
उक्त कथनका कया तात्पथ हो सकता दै । आधुनिक सभ्यताके
प्रारम्भ कार्म मनुष्य सपनी सब आवद्यकताभाको स्वच्छन्द
घनजात वुक्षाकी उपजसे ही पृण कर लिया करते थे । वसख्नौके
स्थानभ्र वस्कर मर भोजनके लिये फलादिस तृप्त रहनेवाले
प्राणियोक्ो धन-सम्पतिसे कया तात्पयं ? सबमे समानताका
व्यवहार था। मेरे ओर तरेका भेदभाव नहीं था । क्रमशः
आधुनिक सभ्यताके आदि धुरंघरोने नाना प्रकारके उद्यम
और कलाओका आविष्कार कर मजुष्योको खिस्राया। जैन
पुराणौके अनुसार दस सभ्यताका प्रचार चोदह कुलकरो दारा
हुआ | सबसे पहले कुटकर प्रतिश्चतिने सूयं चन्द्रका कषान
User Reviews
No Reviews | Add Yours...