युगल चरण | Yugal charan

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Yugal charan by उमाकान्त - Umakant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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युगल चरण : एक खुला धर्मग्रल्थ ] 111 स्वामी रामानन्द का चरण-स्पर्श ही तो कबीर के लिए गुरुदीक्षा बन गया था। इन्हीं श्रीचरणों को देखकर कभी कबीर ने कहा होगा, “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय ।? गुरु और गोविन्द दोनों के श्रीचरण हैं ये । इन्हीं ज्रण-सरोज' के 'रज' से गोस्वामी जी ने अपना मन्त सुकुर सुधारा था। फलस्वरूप उन्होंने 'रचुबर बिसल यश' का वणन किया था ¦ आचार्य भट्टोजि दीक्षित के पिताश्री ने उनसे कहा, इतनी उम्र हो चली, कभी देवालय नहीं गया, कभी देवता को प्रणति नहीं दी, फोई संध्या-वंदन्‌ नहीं, कोई साधना नहीं, कोई उपासना नहीं, आखिर उग्र क्रा, जीकन का क्या उपयोग है ?” भट्टोजि ने कहा, रोज-रोज प्रणाम क्या करता, अणाम तो वह हैं जो भीतर से उगता हैं, खिलता है, सुगन्ध की तरह उपजता है, निझेर-सा फूटता हैं । अच्छा पिता जी, मैं कल देवता को प्रणति दूँगा / पूरे हौसले से उन्होंने अगले दिन तैयारी की, स्नान किया । वे देवालय मये ¦ साष्टांग दण्डवत्‌ क्रिया । भणति क्या अस्तित्व का ही विसजंन कर दिया । प्रणति के लिए जो झूके, तो फिर वे उठे ही नहीं। कैसी विलक्षण प्रणति थी वह ! , क्‍ | दक्षिण के कबीर, महात्मा संतत बेमन्ना कहते ह, यदि तुम केवल प्रणाम कर सकते हो तो तुम्हें किसी उपासना, किसी साधना कौ आवश्यकता नहीं है परन्तु शर्त यह है कि वह प्रणाम पूरे सन-प्राण से हो। युवा गीतकार रमेण यादव के शब्दों में--- | दर्द सारे तमाम हो जाते । हम, जो केवल प्रणाम हो जाते । इन युगल चरणों के कितने पन्ने-दर-पन्ने मेरे सामने खुलते जा रदे है जिन्हे जांच पाना अथवा बाँच पाना मेरी औकात से परे है। सुना है और विश्वास भी करता हुँ कि कोई भी प्रार्थना अनुत्तरित नहीं जाती । अस्तु, इसी भडोसे यह प्रार्थना है, हे परमात्मन्‌ ! मेरे मस्तक हेंतु इस युगल चरण की वत्सल शरण, इनकी ममतालु छाँव बराबर बनी रहे । द |




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