श्री चन्द्रावली नाटिका | Shri Chandra Vali Natika

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Shri Chandra Vali Natika by पारसनाथ तिवारी - Parasnath Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीत्रनद्रावली | [७ वनमाला की, बक पंक्तियों से मोतीमाल्ा की, कोयलों की ध्वनि से मुरली-नाद की स्पृति बारम्बार ्राती है) वर्षा तोउपके प्राणों की गाहक ही बन जाती है। भक्ति-भावना ओर जीवन-दशन “चन्द्रावली नाटिका में मारतेन्दु जी ने अपनी अनुराग रंजित-मक्ति-मावना का परिवय दिया है। भारतेन्दु का जीवन प्रेम और चिरह की मार्मिक कया है । उनके विरह प्रौर प्रेप-जनित वेदना का ज्वार हो “चन्द्रावली' में फूट पड़ा है । भारतेन्द्र जी प्रेम-निष्णात वैष्णव भक्त थे। उन्हें ने कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम का निरूपण किया है! “चन्द्रावली नाटिका' उनके जीवन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत हुई है । चन्द्रावली मे वशित प्रेम का स्वरूप भक्ति मे काम- रूपा अंग के अन्तगंत है । 'समपंण' में भारतेन्दु जी ने अपने प्रेम और मक्ति- सिद्धान्त का निरूपण किया है--- “इसमें तुम्हारे उस प्रेम का वर्णा है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में ` प्रचलित है ।” नांदीपाठ' में भारतेन्दु का निम्न कथन उनकी भक्ति-भावना को पुष्ठ करता द्वै-- 'नेति-नेति तत्‌ शब्द-प्रतिपाद्य सं मगवान | चन्द्रावली चकोर श्रो कृष्ण करो कल्यान चन्द्रावलौ का प्रम वल्लम-सम्प्रदाय की पुष्टिमार्गीय भक्ति-भावना के अनु रूप है । यह भक्तोंको लौकिक धरातल से उठाकर आध्यात्मिक धरातल पर ले जाने वाला है। पुष्टिमार्गीय प्रेमा-भक्ति के रुवरूप और महात्म्य को भप्रति- पादित करते हुए मारतेन्दु जी विष्कमक में शुकदेव जी से कहलाते हैं-- वह्‌ जो परम प्रेम अमृतमय एरकात मक्ति है, जिसके उदय होते ही भ्रनेक प्रकार के आग्रह स्वरूप ज्ञान-विज्ञानादिक अंधकार नाश हो जाते रौर जिसके चित्त में आते ही संसार का निगड्ठ आप से आप खुल जाता है--वह किसी को नहीं मिलो; मिले कहाँ से ? सब इसके प्रधिकारी मो तो नहीं है 1 नहीं-नहीं, ब्रज गोपियों ने उन्हें जीत लिया है, आहा ! उनका कैसा विलक्षण प्रेम है कि--अकथनीय और अकरणीय है, क्योंकि जहाँ काहात्म्य ज्ञान होता




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