संरक्षकताका सिद्धान्त | Sanrakshakta Ka Siddhant

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Sanrakshakta Ka Siddhant by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शरहक्ताशा सिद्धान्त है मात्रिक ढंगमे मंचालिन हौ? किसी वर्तमान ट्रस्टीके मरते पर आुसका अुत्तराधिवारी वैसे निश्चित किया जायगा? ” गाधीजीने জুল षहा বি बरसों पहले मेरा जो विश्वास था জী আল শী है कि सब शुछ्ठ औश्वरवा है, असने असे बनाया है। जिमसलिशे वह ओश्वरफी सारी प्रजाके लिओ है, किसी घास व्यवितिके लिअ नही । जब विसी व्यक्तिवे पास अपने मुचितं हिस्तेसे ज्यादा होता है, हव वह्‌ ओडवरकी प्र॑जाकैः लि अम हिस्सेका सरक्षक बन जाता है। लीदवर सव-शक्िमान है, भिसलिभे मुस सग्रह करके रखनेकी आवश्यकता नहीं। वह प्रतिदिन पैदा करता है। जिसलिओ मनुष्योका भ्री यह्‌ सिद्धान्त हीना चाहिये कि वे भुतना ही अपने पास रे, जिससे आजकय काम चलं जाय, वलके लिओ वे धीजें जमा करके न रखें। अगर आम तौर पर लोग अिस सत्यको अपने जीवनमें अतार लें, तो वह कानून-सम्मत वन जायगा और सरक्षकता अंक कानून-सम्मत सस्था हो जायगी। में चाहता हू कि सरक्षकता ससारके लिओ भारतंकी भेक देन बन जाय। फिर ने कोओ शोषण रहेगा और नम आस्ट्रेलिया और दूसरे मुल्कोर्में गोरो और भअुनकी सतानोंके लिखे कोओ सुरक्षित स्थान और जमोन-जायदाद रखनेका सवाल रहेगा। अिन भेदभावोंर पिछले दो महायुद्वोमे भी अधिक जहरीझी लडाओके बीज छिपे हूँ। रही बात अत्तराधिकारी निश्चित करनेंकी, सो पदामीन ट्रस्टीको कानूनकी स्वीकृतिसे अपना अ्रुत्तराधिकारी चुननेका अधिकार होगा हरिजन, २३०२-४७, पृ० २९ आजके धनवानौकौ वर्ग-सथपं और स्वेच्छासे घनके ट्रस्टी बन जानेके दो रास्तोर्मे से भेक रास्ता घुन लेना होगा । भुम्हे अपनी जायदादकी रक्षाका हक होया। জুন বই भी हक हीगा कि अपने स्वायंके लिओे नही, बल्कि देशके भलेके लिओे दूसरोका शोषण न करके वे घनको बढ़ानेमें अपनी बूद्धिका अुपयोग करे। अनकी सेवा और असके द्वारा होनेवाले समाजके वल्याणको घ्यानमें रसकर राज्य आन्‍्हें निश्चित श्मौशन सं-२




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