व्यावहारिक वेदान्त | Vyavaharika Vedanta Vol-2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
83
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाषण ९
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भूख की ज्वाता पर छदि देने के लिये इन धर्ता पर
लिखना सीझार करता ই खद् कलाकार नदय हीं হাঁ
सकता | सब लोग प्रेमवन््द नहीं हो सकते, पर ऐसी
परिस्थिति से प्रेसचन्दो फा पदता मी कटसाध्य ह् 1
प्रंथकारों को इन घातों से कट होता है. पर अभी बह
सतर्क नहीं हुए हैं. । सरस्वती का उपासर दान्त होता
हैं, सम्वोपो होता है. परन्तु यदि वह इस प्रकार
अपनी ठेसनी को थोड़े से लोगों फी स्द्थेंसिद्धि का
ड्प्रुण्ण बनने देता है ती बह बाग्देवता की अप्रतिष्टा
करने झा अपराधी है! ददि स्यान स्थान में लेसक-
संघ स्थापित शो जायं सो हिन्दी फी सेवा दो,
सुरुचि का प्रसार हो ओर लेखरों के स्वत्वों की भी
হা হী।
হী पचकार से
मैं दो शब्द पत्रकारों से भी कहने की घुष्टता
करदा ह! उन को दिन कंदिनाइयों का सामान्यतः
सामना करना पड़ता हूँ उनसे अपरिचित नहीं हूँ।
आज वो उन पर ऐसा प्र छ प्रहार शो रहा हू. कि
जीवन-रत्यु का प्रभ उपस्थित हो गया है । वह चिस
पैद ऽतर साहस से इन परिस्थितियों च्छ सामना कदे
ह उदधी जितनी प्रशंसा दी जाय, थोड़ी है! परन्तु
ऊुझ को यह शिक्षयद हू कि थे चहुद सन्दोपी हैं
साधन तो कम हूँ हीं; पर हमारे पत्र एक दूसरे को
ही आदशे मान ठेते है, अपरेटी रे पयो की चयादरी
करने को महस््ताक्मंज्ञा भी उनको कम ही रहती है ।
सम्पाइन शप्रलेख लिलने तक ही परिसीमित रह
उप्त हे । पत्नियै भी अपने रे अभी इस दोफ जे
इपर नटीं उख सकी! पृष्ठ भरें ता जाते हूं पर
दिस दीड से भरना है उसक्ली ओर पर्च्याप्त ध्यान नहीं
दिया जाता। अन्छी साम्ी देने में व्यय ता होगा पर
इसके दिना पाउसो की सुरुविपृ्ण सेवा हो भी नहीं
सकती । समाझोवना का प्रदंध तो चहुत ही कच्चा
है। बहुचा ऐसे छूेगो को यह জানে জীবা জানাই
जो आशय पुलक कृ वपय न सवया अनभि ভান
4
৫4?
। उनऊझी आलोचना पुझर पुकार फर इस बात का
प्रत्ापन करती हो। अधिकारी आझोचना कराने में
ज्यय तो होगा पर ऐसी ही आलोचना अच्छे-युरे की
परीन्ना कर सक्ती है और लेसक, प्रकाशक तथा
पाठक के लिये उपयोगी हो सकती है ।
अब में बस विपय की ओर जाता हूँ. जो आज
हिन्दी के प्रत्येक प्रेमी के हृदय को क्ञुभ्य शर रदा है 1
मैंने आर्भ में ही কহা था कि हिन्दी पर चोसुस्
प्रहार हो रहा है । हम इस प्रहार सै उरते नदी ।
पिछले सो-डेद-सो वर्शे में हिन्दी को साजान्नय नहीं
मिल, उच्टे इसे राज की उदासीनता और दिसेघ का
सामना करना पड़ा रै! आपत्तियों की गोद में वह
पली है। हम को विश्वास है कि बहू आज কী হি
स्थिति को भी झेलने में समर्थ होगी । झमर मारती की
इस ह्यडूली के खरों में भारत की राष्ट्रीय आत्मा बोलवी
है; बसे फोई कुछ नहीं सकता।
सरकार और हिन्दी
फिर भी परित्यिति को समझ तो लेना ही
चाहिए । सरकार की हिन्दी और नागरी पर फभी कृपा
नहीं रही। दिस लिपि को कोटि-कोटि भाखवासी
अपनी पवित्र लिपि मानते हैं उसको भारत फी मुख्य
সা रुपये पर स्थान नहीं है। जाप उसे रुपये
नोट पर न पायेंगे । सरझार छा रेडियो विभाग तो
हिन्दी के पीछे हाथ धोकर पड़ा है । कहने को तो बह
जपने वो हिन्दी-5३ं से अडय रखकर हिन्दुस्तानी को
अपनी भाषा मानता है पर उसकी हिन्दुस्तानी হু ক্যা
ही सामान्तर ई । सेने शिकायतें सुनी हूँ कि 'टाक्स में
संस्कृत के तत्सम श्ट पर छम चदा दी जाती है ।
অথ হা হাল হীং उसकी हिन्दुसानी फे उदार तो
द्म दित्य ही छुनते हैं । यदि गा উল হাহ मी
छा गया तो 'यानी दिखना कहने की लायज्यझता
पड़ती हूँ पर 'राकक, 'तसव्युर, 'पेशहझुदा জতভত
जैसे गब्द सरल और सुबोध माने जाते हैं । रेडियो
विसाग समझता है कि साधारणतया हिन्दू-झुसलमानों
|,
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