जैनसुधाबिन्दु | Jainsudhavindu

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Jainsudhavindu by स्वामी दयानन्द सरस्वती - Swami Dayananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| (१३) जीव का प्रवच ईश्वर के हाथ सें नहों कित्त्‌ उसके कर्माधीनरी है क्योंकि जो जेसखा करता है उसका फ़ल तदतही भोगता है, जैसे मिष्टान्त खाने वाले का सुख मोौठा और नीस चाबने वाले का सुख कड़वा होवे तो यह অহন, के स्वभाव का फ़ल है, ईश्वर पदर्मात॒मा का इसमें क्या दावा है! ॥ (द) पष्ट ३८८ पंक्ति १ से स्वामोजी लिखते हैं कि “ आकाश - मं चौदह राज्य तथा पदूमगिला सुक्ति का रान मानन! यवत प्रमाण और गुक्ति से विरुद्ध है, केवल कपोल कल्पना माज है, और उसके ऊपर ইত के चराचर का देखना * और कम कबे से वहां चला जाना यह भी बात आप लोगों की असत्य है ।॥ (स) खामौ ज मद्दाराज चोद राज्य भावाय राज्यधानो नहों हे किन्तु राज्य एक प्रकार के मापद्धे, ओर जनौ लोग आकाश में चौदह राज नहों मानते, किन्त, जनभास्त्र के लेखा- सुसार तौन लोक कौ सम्पूर्ण रचना का प्रभाग चौदर राजूऊंचा है जिसमें नोवे सात राजू चौड़ा मध्य में एक राजू फ़िर ५ राज फ़िर अंत में एक राजू इस प्रकार चौड़ा है, और घताकार इसक ३४३ राजू है। आपने सना सुनाया गप्प शप्प जो मन में आया लिख मारा किसो जैन पुस्तक में ऐसा लेख नहों है, ओर मोक्ष स्थान सिद्ध शिला कायथाथ स्वरूप भो आप को समझ में नहों आया फ़िर किस आशा पर तक करते हैं ॥ (ক) সুভ ২৫ में जपर लिखि लेख से गे यद लिखा रै कि “ यन्ञों कै विषयमे च्रापर तुतक करते ङसो पदाथ विद्याकै मों होने से क्योकि घृत दृध और मांसादिकों के यथावत गुषा % जितने लेख के तले लकीर सची गई हे, उसकी पुष्टि के सखामौ ভী अपने तारोख 8 नवम्बर सन्‌ १८८ ईन्के पत्रमे (जो उन्होंने आत्माराम जो को लिखा था) पुस्तक रत्ता” गोतम मद्दावीर कौ वर्चा का प्रमाय तो देते ई, परन्तु यद्ग समभति कि चद्व वाक्य उलटा इसकी दी बाधक है॥ ईहः




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