गल्पगुच्छ भाग 1 | Galpguchh Bhag 1

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Galpguchh Bhag 1 by रविंद्रनाथ ठाकुर - Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घाटकी बात ११ देखा । ज्यादा आदमिर्योका समागम होते रहनेसे सुमने मेरे पास आना बिलकुछ ही छोड़ दिया था। एक दिन सन्ध्याकै समय पूर्णिमाको आकाशमें चाँद उठते देख शायद हम दोनोंका पुराना सम्बन्ध उसे याद आ गया। उस समय घाटपर ओर कोई न था। मींगुर अपनी “मीं-मीं'की तान अरूप रहै थें। मन्दिर्के घंटा-घड़ियालोंकी ध्वनि भी कुछ देर पहले बन्द हो गई थी, उसकी अल्तिम शब्द-तरंगें क्षीणतर होकर उस पारकी छायामय वन-श्रेणीमें जाकर छायाकी तरह विलीन हो गई। पूरी चाँदनी छिटक रही है। ज्वारका पानी छप-छप कर रहा है। मेरे ऊपर छाया डालकर कुसुम बैठी है। हवा थमी हुई है, पेड़-पोधे चुपकी साध गये ই। कुसुमके सामने गज्जाके वक्ष- स्थलपर बेरोक-टोक फैली हुई चाँदनी दै,--कुसुमके पीछे, आस-पास, येड़-पत्तियोंमें, मन्दिरकी छायामें, टूटे-फूटे मकानोंकी भीतोंपर, पोखरके किनारे--सर्वत्र चाँदनी बिखर रही है। ताड़-बनका अन्धकार अपनी देह दुबकाकर मुँह छिपाकर बैठा हुआ दहै। छतिवनके पेड़ोंकी डाल्यिोंपर चमगादड़ लटक रहे हैं। बस्तीके पास गीदड़ोंकी ज्ोरोंकी ध्वनि उठी ओर थम गई | संन्यासी धीरे-धीरे मन्दिरके भीतरसे बहर निकर आये । चाटपर आकर दो-एक सीढ़ी उतरते ही उनकी दृष्टि कुसुमपर पड़ी ! अकेली श्रीको ऐसे एकान्त स्थानमें बैठी देख वे छोटना ही चाहते ओे,--इतनेमें सहसा कुसुमने मुँह उठाकर पीछेकी ओर देखा। उसके सिरका कपड़ा पीछेको खिसक गया। उध्वंमुख खिलते




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