गल्पगुच्छ भाग 1 | Galpguchh Bhag 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
231
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घाटकी बात ११
देखा । ज्यादा आदमिर्योका समागम होते रहनेसे सुमने मेरे पास
आना बिलकुछ ही छोड़ दिया था। एक दिन सन्ध्याकै समय
पूर्णिमाको आकाशमें चाँद उठते देख शायद हम दोनोंका पुराना
सम्बन्ध उसे याद आ गया।
उस समय घाटपर ओर कोई न था। मींगुर अपनी “मीं-मीं'की
तान अरूप रहै थें। मन्दिर्के घंटा-घड़ियालोंकी ध्वनि भी कुछ
देर पहले बन्द हो गई थी, उसकी अल्तिम शब्द-तरंगें क्षीणतर होकर
उस पारकी छायामय वन-श्रेणीमें जाकर छायाकी तरह विलीन
हो गई। पूरी चाँदनी छिटक रही है। ज्वारका पानी छप-छप
कर रहा है। मेरे ऊपर छाया डालकर कुसुम बैठी है। हवा थमी
हुई है, पेड़-पोधे चुपकी साध गये ই। कुसुमके सामने गज्जाके वक्ष-
स्थलपर बेरोक-टोक फैली हुई चाँदनी दै,--कुसुमके पीछे, आस-पास,
येड़-पत्तियोंमें, मन्दिरकी छायामें, टूटे-फूटे मकानोंकी भीतोंपर, पोखरके
किनारे--सर्वत्र चाँदनी बिखर रही है। ताड़-बनका अन्धकार अपनी
देह दुबकाकर मुँह छिपाकर बैठा हुआ दहै। छतिवनके पेड़ोंकी
डाल्यिोंपर चमगादड़ लटक रहे हैं। बस्तीके पास गीदड़ोंकी ज्ोरोंकी
ध्वनि उठी ओर थम गई |
संन्यासी धीरे-धीरे मन्दिरके भीतरसे बहर निकर आये ।
चाटपर आकर दो-एक सीढ़ी उतरते ही उनकी दृष्टि कुसुमपर पड़ी !
अकेली श्रीको ऐसे एकान्त स्थानमें बैठी देख वे छोटना ही चाहते
ओे,--इतनेमें सहसा कुसुमने मुँह उठाकर पीछेकी ओर देखा।
उसके सिरका कपड़ा पीछेको खिसक गया। उध्वंमुख खिलते
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