यापनीय और उनका साहित्य | Yapniya Aur Unka Sahitya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
270
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जैन परम्परा की ततीय शाखा यापनीयं
और उसका उदय
सुदर अतोतकालसे मानवताको शीतलूता प्रदान करनेवाली एवं शिवसौर्यदातरो
निर््रन्य सरिता अनवरतं प्रवार्हित रहौ हैं) इस युगके आरम्ममें सम्यता और
ससस््कृतिके साथ इस सरिताक़ा सुखद प्रवाह तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा आरब्ध हुआ
जो कालके थपेडोकी चोट खाता हुआ निरतर प्रवाहमान रहा और अन्तिम तोथेदुर
महावीर तक चला आया । यह निग्रन््यथ संस्कृति कभी छृप्त भी हुई तो पुन अपने
समग्र प्रभावको छेकर उदित भी हुई ।
पर महावीरके पश्चात कालान्तरमे निग्ने्धवरिता दो घाराओंमें विमक्त हो गई--«
एक दिगम्बर और दूसरों रवेतास्वर | इन दोनों धाराओंको जोडने हेतु एक सध्यम
मार्गके निर्माणका जिसे यापनीय कहा गया प्रयास किया गया । यह नया प्रयास
इन दोनों धाराओमें फासला न होने पाये ओर वें अपने एक निग्नन्थ रूपमें बनी रहें
इसके लिए इसने सक्षम प्रयास किया होगा । परन्तु यह मध्यम माग जोडनेके का्जेमें
उतना मफल नहीं हो सका और एक तोसरी धाराके रूपम ही उसने अस्तित्व लिया ।
यहाँ जैन परम्पराकी इसी तोसरो घारा यापनायक्रे सम्बन्धमे विस्तुत ऊहापोह
किया जावेगा | साहित्यिक शिलालेखोय भूतिलेखीय व अयस्रोतोय प्रमाणोके प्रकाश
म हम देखनेका प्रयास करगे किं जैन परमभ्पराकां यह तृतीय शाखा किस प्रकार उद्मृत
हुई और एक समय तक वह विकसित होती गई--उसके अनुयायी जसका प्रभाव
तथा उसका साहित्य वृद्धिगत होता गया एवं मूर्तियोकी प्रतिष्ठा मन्दिरोका निर्माण
और जैनघमंकी प्रभावनाके उत्सव आदि कार्य इसके द्वारा होते गय । और हम यह
भी देखेंगे कि वह किस प्रकार लप्त हो गई या उक्त दोनों धाराओंम बह विलोन
हो गई!
इतिहास भौर पुरातल्वविद् प॒नाधूराम प्रेभोने लिखा है--कि जैन धर्मके मुख्य
दो सम्प्रदाय हैं-“दिग्रस्थर ओौर इ्वेताम्ब । इन दोनेके अनुयायी लाखों हैं और
साहित्य भी विपुल है. इसलिए इनके मतभेदोंति साधारणत सभो परिचित हूँ परन्तु
इस बातका बहुत ही कम छोगो को पता है कि इन दोके अतिरिक्त एक तोसरा सम्प्रदाव
भी था जिसे यापनोय आपुकोय या गोप्य सघ कहते थ और जिसका इस समय
एक भी अनुयायों नहीं हैं ।
१. यापनीयों का साहित्य शीषंक निबन्ध अनेकात १९३९ ओर अब जैन साहित्य
शौर इतिष्टासः' हितीय संस्करम १९५६ प ५६ 1
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