पूजन रत्नाकर | Poojan Ratnakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16 हमें यह्‌ विचारना चाहिये कि यदि खाज भमत्र खसः शरण में साज्ञात्‌ विराजमान द्ोते तो हम वहाँ पहुँचकरः क्‍या: २ करते ? उनकी शान्ति छवि के दर्शन धुजन करके झपने जीवन को धन्य मानते तथा चहाँ बैठकर उनके उपदेश से लाभ उठाते । हम चाहें तो वही सारे लाभ आज भी भन्दिर में प्राप्त दो सकते हैं। भगवान की मूति को साक्षात्‌ भगवान मानकर दर्शेन पूलज़ करके अज्ञय पुण्य और वीतरागता प्राप्त कर सकते है तथा भगवान्‌ की वाणी जो शास्रों मे विद्यमन है उसके अध्ययन से हृदय के अन्घकार को भगाकर आत्मा को प्रस्म पवित् बनाने का मार्ग भी प्रशस्त कर सकते है। पर यद्द सब दमारी दृष्टि और विचारों पर निर्भर है। इस विषय पर सम्पादक जी ने भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रस्तुत ग्रन्थ जेनपूना की साथकता तथा उसकी विधि को पृणेतया समकने वाले साहित्य का अभाव लोगों को बहुत समय के खटक रहा था। यद्र विषय परम्परा से उपासको को ज्ञात होता रहा है पर इसका सर्वाङ्ग विवेचन करने वाली कोद खास पुस्तक देखने में नहीं आई। मन्द्रो मे जो पूजायें होती हैः उनके किये कड भिन्न र धुस्तकां का उपयोग करना पडता था तथा एक पेसे समहकी आवश्यकता प्रतीत होरही थी जिसमें उपयोग में आने वाल्ली भिन्न २ कवियो की सभी आवश्यक पूजाओं का संकलन हो। दनी दो उद्‌ श्यों स यह पूजन रत्नाकर' जेन सिद्धान्त प्रन्थमाला के तीसरे पुष्प के रूप में आपके सम्मुख दै । इसके सम्पादक धीमान प॑० अजितकुमारजी शास्नी (मुल्लतान- वाले ) समाज के सुप्रतिष्ठित, सुपरिचित व॒ उश्वकोटि के विद्धान्‌ है । आपने पूजन और उसकी विधिका सर्वाङ्ग सुन्दर विवेचन किया है जो पाठकों को पूजन विषयक जेन दृष्टिकोण को सममले में




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