वैदिक धर्म वर्ष ३२ अंक ३ | Vaidik Dharma (varshh-32 Ank-3)

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Vaidik Dharma (varshh-32 Ank-3) by डॉ० इन्द्रसेन -Dr. Indrasen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६१) बाल-पक्षाधात রা पोलिओ-माईलीटीस छेखक-- योगीराज परित्राजक राजवैद्य- श्री श्रीमत्‌ ब्रह्मतारी गोपाकछ चैतन्य देव, पीयूषपाणी, केक्ेवाडी, मुंबई ४] (४) आयुर्वेद-ससिद्धान्त । बतमान समयसें भूमण्डरल पर अनेक-प्रकारके सेकर- जातीय रोगोंका प्रादुभाव हो रहा है । आयुर्वेदके मनी- पिवुस्द सब शेगोंका जो नामकरण कर गये हैं, उनके अति- रिक्त अनेक-प्रकारके रोगोंके नाम पर्तमान समपमें सुनने तथा देखनेमें भा रदे हैं । जैसा 'मिनिन जाइटिस रोग, इसे हिल्दूस्थानमें रररेन-तोड बुखार बोछने पर भी, दास्तवमें वह सन्निपातका! ही एक प्रकार है। अतः धोर सल्चिपातके निय- मानुषार सुविश्च भायुर्ैद-शाञ्जी यवि उसकी चिकित्सा गुरु करे तो उसमें भवइय छाम होता है, रोगी बच जाता है, सुचिकिश्सकको यश मिछता हे;- यधपि 'सिनिन जाहटि सकी चिकित्सा डाक्टरी विज्ञानमें कदाचित ही होती है । झायुददेद शाख्रीवुन्दको यश मिलनेका पुक मात्र करण भायु- देंदका ब्रिदोष यानों वायु-पित्त कफका सिद्धान्त हे । इत ` विषय पर मैं भागे सविस्तर चचो करूंगा। ४ पोक्षीभोमाइकीटिस ” थानीं ' पोछ्तीभो ” रोग जिसे भारत-सन्‍्तान ' बाकक-पक्षाधात ' कहती है, बह मी सबन्षिपातका ही एक नवीम संस्करण है। लब देखना चाहिए, कि साब्रि-पातिक ज्यरके ढक्षणोंके साथ इसका कहां तक मेछ-जोक है। भायुर्देद-बिश्ञानानुसार सर्व-प्रकारके रोगोंका कारण बह है किः -- सर्वेषामेष रोगाणां निदान कुपिता मा! । तत्‌ प्रकापस्थ तु प्रोक्तं विविधाहितसेधनम्‌ ॥ कुपित वायु-पित्त-कफ ही सर्व प्रकारके रोगकी डत्पत्तिके कारण है एवं अनेक प्रकाश्की भहित-सेदा ही वातादि ह जिदोषके प्रकोपके कारण है। यद्यपि कुपित बातांदि ब्रिदोष রী सर्व प्रकारके रोगोंडे कारण हैं, तथापि अनेक समय कोई-कोई रोग दूर रोगोंके उध्यावक द्वोते हैं। जैसे ज्वर-घंतापले रक्तपिन्त रोगकी उत्पात्ति दोषी है; वैसे हो रक्पिन रोगसे भी उवरकी- उत्पति होती है । तद्त्‌ ज्वर भौर रक्तपित्त इन दोनों रोगो राजपक्षमा (टी, बी.) रोगक। आक्रमण द्ोता है। इस प्रकार एक रोभसे दूसरा रोग, दूसरे से तीपरा रोग , इस प्रकारसे अनेक पश्रकारके बर्ण-संकर रोगोंडी इस्पत्ति हुई |प्रोछ़ीओों वा बाढ॒क-पक्षाघात रोग भी एक प्रकारके वणे संकर रोग ही हैं। ज्वरके कारणरे सम्बंधमें आयुर्वेद -विशानका मत हे, कि-- भिथ्याहारविहाराम्यां दोषा ह्यामाहायाध्चरयाः। बहिर्निरस्य कोष्ठामिनि ज्वरदाः स्युः रसानुग।ः ॥ आधार-विहारादिकि लनियमके कारण वातादि प्रदोष कुपित होकर “ लासाशय ?! नामक कोएमें सब्चित होनेसे, लामरस दूषित होता है एवं कोठापिसे बाहर निक्षिप्त दोता है. इससे ही ज्वरकी उत्पात्ते होती हे। कोष्ठामि बाहर निशक्षिप्त होनेसे श्रीरका स्वक्‌ गरम होता है। बाक-पक्षाघात रोगमें प्रायः विकाश रोगियों में पादिके- पहुछ बात भौर पिसके प्रकोपसे रोगाक्रमण होता है | वात + पित संयुक्त उवरका निदान निम्न रूप है।- तहृष्णा भुच्छो भ्रभोदाहः खप्तनाशः शिरोरुजा । कण्ठास्यशोषो वमथुः रोामहर्षों5८दचिस्तमः । परवेमिदश जुम्मा च वातपित्तज्वराकृतिः ॥




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