क्षुधित पाषाण | Kshudhit Pashan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्ताचार-पत्र पढ़कर एवं मुबलाई खाता खाकर एक छोटे से
कोने वाले घर में दीपक बुफाकर बिछीने पर जाकर शयन किया । मेरे
सामने वाले खुले जंगले के भीतर-से, अ्रन्धकार से पूर्ण अरावली দলীল লী
चोटी से एक्र ग्रत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्र सहख्रक्रोटि योजन दूर झ्राकाश से,
उस बहुत छोटी कीम्प-लाट के ऊपर श्रीयुक्त महसूल-कलक्छर को टकटकी
बाँधकर निरीक्षण करते हुए देख रहा था--इससे में विस्मय और कौतुक
का अनुभव करता-क्रता किस समय सो गया--नहीं कह पकता ।
सहसा एक समय विहर कर जग उठा--घर म कोई शब्द हूप्रा हो, ठेना
नहीं था, किसी आदमी ने प्रवेश किया हो--वह भी देखने को नहीं
मिला | अधेरे पवत के ऊपर से निर्निमेष नक्षत्र अस्तप्रायश हो गया था
एवं कृष्णपक्ष का क्षीण-चन्द्रालोक ८ प्रकाश ) अ्रनधिकार-संकुचित-
सलानभाव से मेरी खिड़की के मार्ग द्वारा प्रवेश कर रहा था ।
किसी आदमी को नहीं देख पाया। तो भी जैसे मेरे मन को
स्पष्ट लगा, कोद एकर व्यक्ति मुझे घौरे धीरे ठेलरहा है । मेरे जग उठते
ही बह कोई बात न-कह कर केबल जैसे अपनी अंग्रूठियों से चमकती
हुई पाँच उद्धलियों के इशारे से अत्यन्त सावधानी पूर्वक अपने पौछे-पीछे
भ्राने का प्रदिश कर उठा ।
पँ बहुत दुषचप उठा । यद्यपि उस्र शतकक्षप्रकोष्टमय ( सैकड़ों
कमरों वाले ) प्रकाण्ड शून्यतामय, निद्वित ध्वत्ति एवं सजग प्रतिध्वतिमय
विद्याल प्रासाद में घुभे छोड़कर भर कोई भी श्रादमी नहीं था, तो भी
पम-पग पर भय होने लगा--कहीं कोई जग न जाय । महल के अधिकांश
कमरे बन्द थे एवं उन सब घरों में में कभी नहीं जाता था ।
उस रक्त मे निःशब्द रपति रखते हुए तथा सासि सापे उस श्रहदय
आह्वान रूपिणी का अनुसरण करता हुप्रा में कहाँ होता हुप्रा कहाँ जा
रहा था--आराज उसे स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता । कितने संकीणं
प्रैधेरे मागं, कितने बडे बरामद, कितने निस्तन्य अत्यन्त विशाल सभा
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