क्षुधित पाषाण | Kshudhit Pashan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Kshudhit Pashan by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravendranath Thakur

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore

Add Infomation AboutRAVINDRANATH TAGORE

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सम्ताचार-पत्र पढ़कर एवं मुबलाई खाता खाकर एक छोटे से कोने वाले घर में दीपक बुफाकर बिछीने पर जाकर शयन किया । मेरे सामने वाले खुले जंगले के भीतर-से, अ्रन्धकार से पूर्ण अरावली দলীল লী चोटी से एक्र ग्रत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्र सहख्रक्रोटि योजन दूर झ्राकाश से, उस बहुत छोटी कीम्प-लाट के ऊपर श्रीयुक्त महसूल-कलक्छर को टकटकी बाँधकर निरीक्षण करते हुए देख रहा था--इससे में विस्मय और कौतुक का अनुभव करता-क्रता किस समय सो गया--नहीं कह पकता । सहसा एक समय विहर कर जग उठा--घर म कोई शब्द हूप्रा हो, ठेना नहीं था, किसी आदमी ने प्रवेश किया हो--वह भी देखने को नहीं मिला | अधेरे पवत के ऊपर से निर्निमेष नक्षत्र अस्तप्रायश हो गया था एवं कृष्णपक्ष का क्षीण-चन्द्रालोक ८ प्रकाश ) अ्रनधिकार-संकुचित- सलानभाव से मेरी खिड़की के मार्ग द्वारा प्रवेश कर रहा था । किसी आदमी को नहीं देख पाया। तो भी जैसे मेरे मन को स्पष्ट लगा, कोद एकर व्यक्ति मुझे घौरे धीरे ठेलरहा है । मेरे जग उठते ही बह कोई बात न-कह कर केबल जैसे अपनी अंग्रूठियों से चमकती हुई पाँच उद्धलियों के इशारे से अत्यन्त सावधानी पूर्वक अपने पौछे-पीछे भ्राने का प्रदिश कर उठा । पँ बहुत दुषचप उठा । यद्यपि उस्र शतकक्षप्रकोष्टमय ( सैकड़ों कमरों वाले ) प्रकाण्ड शून्यतामय, निद्वित ध्वत्ति एवं सजग प्रतिध्वतिमय विद्याल प्रासाद में घुभे छोड़कर भर कोई भी श्रादमी नहीं था, तो भी पम-पग पर भय होने लगा--कहीं कोई जग न जाय । महल के अधिकांश कमरे बन्द थे एवं उन सब घरों में में कभी नहीं जाता था । उस रक्त मे निःशब्द रपति रखते हुए तथा सासि सापे उस श्रहदय आह्वान रूपिणी का अनुसरण करता हुप्रा में कहाँ होता हुप्रा कहाँ जा रहा था--आराज उसे स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता । कितने संकीणं प्रैधेरे मागं, कितने बडे बरामद, कितने निस्तन्य अत्यन्त विशाल सभा ६




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now