मुक्तिदान | Muktidaan

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Muktidaan by सिद्ध विनायक द्विवेदी - Siddh Vinayak Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुक्ति-दान १९ राजेश्री के प्रत्युत्तर को सुनकर सूखी हँसी में हँसते हुए विक्रम बोला--- भूल मत करो, राजेश्री ! मैं जिस अराजकता को अहिंसा के बल पर उकसा रहा हूँ, वह खूनी चादर ओढ़ कर किसी न किसी दिन सम्राट की शक्ति के साथ लोहा लेगी । यदि मैं विजयी हुआ तो राजतंत्र के स्थान पर प्रजा- तंत्र शासन प्रणाली स्थापित करूँगा किन्तु राजेश्री | मैं कभी मी राजेश्वर्य से युक्त होकर भोगों की गोद में जीवन न व्यत्तीत कर सकूगा। रजेश्री ने इष्ठ अम्य मनस्क भाव से कहा--अभी से आप भविष्य के. सम्बन्ध में क्‍यों कठोर बन रहे हैं १ इसलिये राजेश्री | कि मुझे जो कुछ सुख भोगना था, घह अपनी सत्ता के दिनों में भोग चुका एक সাং आज का जीवन संघरपेसय एवं अति- नदरी दै । इसलिए कठोर बनकर वर्तमान और भावी जीवन की सैनिक की भाँति ब्यतीत करूँगा | तो क्‍या आप राजतंत्रवाद को लोकतंत्री शासन से निम्न श्रेणी का समभते हैं । मै बादों के ऋगड़े में पड़कर आदर्श शासन प्रणाली को स्वीकार करता हूँ । ऐसा शासन जिससे प्रजा छी भुखमरी और गरीबी दूर होती है, जो सम्पन्नता फे साथ-साथ प्रजा के स्वास्थ्य, शिक्षा-दीक्षा एवं भौतिक उन्न- तियों को प्रोत्साहन देता हो, जो प्रजा को संस्कृति एवं आध्यात्मिकता के उच्च स्तर पर बिठलाने वाला हो, बह चाहे एकतंत्रवाद हो या प्रजातंत्रवाद, मुझे पसन्द है, किन्तु में जानता हूँ. कि आज की शोपित किन्तु जागरुक जनता अजातंत्रवाद को ही पसन्द करती है । तो फिर आप खोयी हुई राज-सत्ता को आ्राप्त करने में प्रयत्नशील क्यों हैं ९ क्योंकि मेरे घर के अन्दर डाकुओं ने डेरा डाला है। में उन समूल नष्ट किये बिना शान्ति और सनन्‍्तोप की श्वास नहीं ले सकता। यह एक क्षत्री का प्रण है, अटल है । रजे श्री ने ओँल गडा कर विक्रम को देखा कि विक्रम का ओज़स्वी स्वरूप प्रतिशोध की उन्मत्त भावना से दग्ध ह्यो कर उपर दीख पढ़ रहा ४५ ¢) ८४




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