अनुत्तर योगी - तीर्थंकर महावीर | Anutar Yougi - Tirthankakr Mahaveer

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Anutar Yougi - Tirthankakr Mahaveer by वीरेन्द्र कुमार जैन - Veerendra Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हम ক পা রর পুল টা জাবি ভীক্ক ता पास ही चरते वैल, दौड़ कर मेड़ी ओर ..० লাই, জী মূল चारों ओर से घेर कर मेरा कवच हो रहे। वे मेरी देह से होले-हीले रत करने लगे। *' 'उवाला अपनी जगह, स्तंभित घड़ा देखता रह गया } ` ` ` चह विगलित दाण्ट से प्रापना कर्‌ उठा; ताय, य अनन्‍्धा हो गया था, स्वामी । अरे तुम कितने सुन्दर, सुकुमार हो । जान पड़ता है कीई देवों के ऋषि हो ।' * पा गया, पा गया, पहचान गया ' ` पहचान गया । राजपि वद्धंमान कुमार ! जय हो प्रभू, जय ही, क्षमा कर ताथः मुत्त अज्ञानी को 11 मैंने आश्यासक মলা में हाथ उठा दिया। पता नहीं कितनी देर वह मेरे षरं में भूमिष्ठ दहो. जाने क्या-क्या कहता रहा. करता रहा । मेरी देह अपने में सिमट कार, जाने कव मेरी अन्तर्तम चेतना में विश्वव्ध हो गई * हृठात्‌ मेरे मन के मुद्रित कपाट पर जैसे एक कोमल हो आई बिजली की उंगली मे दस्तक दी। मैं अनायास ही वहिर्मुख हुआ । सुनाई पड़ा : प्रभु, आपका चिर किकर सौधर्म इन्द्र मेवा में प्रस्तुत है ` ` श ` “1 ' मरी चृप्पी से ध्वनित हआ । देवाय की यह दारुण तपस्या कितने काल चलेगी, सो कौन केह सक्ता है ! जानता हें, इस अवधि में प्रकृति की समस्त प्रतिकूल शक्तियाँ एकत्र होकर प्रभू की राह में जाने कितने ही भयंकर उपसर्ग उपस्थित करेगी । पद-पद पर अन्तहीन वाधाणुं आर्येगी । अज्ञा दे नाय, कि इसं काल में सदा सर्वव मँ आपके संग विचरे, भौर आने वाले हर उपसर्गे का निवारण करूँ }' मेरी नीरवता ओर भी गहरी हो गर्ई। मेरे श्वास तक निस्प॑दहो गये}. ओौर इन्द्र को जाने किस अगोचर से उत्तर सुनाई पड़ा : 'शतक्रेन्द्र, तुम्हारे भक्तिभाव से भावित हुआ । पर जानौ स्वगेपति, जौ सारे वन्धन त्याग कर पूर्णं निर्वन्धन होने कौ निकल पडा है, वह्‌ कोई नया वन्धन कंसे स्वीकारे ? परम स्वाधीनता-लाम की इस यात्रा मे, पराधीन होकर कैसे चल सकता हं । क्म-चक्र का निर्दलन अरिहन्ते अकेले ही करते ह । अपने वधे कर्म-वन्धन को काटने में दूसरे की सहाय सम्भव नहीं । अरिहन्तों न पर सहाय न कभी स्वीकारी, न स्वीकारते ह, न कभी स्वीकारेगे । स्वजयी जिनेन्द्र अपने ही वीयं के वल केवल- ज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने ही वीय के बल मोक्षलाभ करते हैं ।*




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