प्रवचनसार प्रवचन गाथा [ खण्ड 2 ] | Pravchan Sara Pravchan Gatha [ Vol. 2 ]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
380
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आयारदसा १३ € ।
प्रवचनसारप्रचचनगाथा १६ ( १७)
है इसीलिये यह भगवान स्वयंभू है ऐसा वीतराग उपदेष्टाबोंने निर्देश
किया हैं। ' '
. । निश्चयसे यह ही आत्मा शुद्धस्वभावकी भावनाके प्रभावसे शुद्ध
अनन्त शक्ति चैतन्य स्वभाव के पूरे धिकास वाला हेता है इस आत्मा
मे समभने.योग २ मुख्य उपाय हैं ! १--प्रदेश, २--ज्ञान अथवा
चेतन्य इनमें समस्त संसारियों, संशियों की दृष्टि वस्तुनिर्णय के समय
प्रादेशिको होती है चेतन्य भाव की दृष्टि से सर्व निणेय करना विरले
समाधि प्राप्त महात्माका काय रह गया है। प्रदेश दृष्टि-स्थूल दृष्टि है
जिस से विस्तार का अनुमान रहता दै । चैतन्य दृष्टि सूक्षमदष्टि है जिस
में इस ज्ञेय तन्त्र की देशकालकी सीमा नदीं हती अर्थात् देशकालसे
परे चेतन्यभाव होता है | आत्मा कां वर्णन जब प्रदेश सापेक्ष होता है
` ततव वह जगदृव्यापी नहीं रहता और चैतन्य स्वरूप का दर्शन रहता दै
चहाँ निर्विकल्प स्थिति होती हे और वह चैतन्यस्वरूप सामान्यविशेषा-
त्मक होने से सामान्यशक्ति अर्थात् दशंनके द्वारा सर्वच्ष्टा तथा विशेष-
शक्ति अर्थात् ज्ञानके द्वारा सवज्ञाता रहता है अतः वह चेतन्वात्मक
परमात्मा सर्वेव्यापी है फिर भी न व्यापी है न अव्यापी है ऐसा सर्व-
ज्यापी है |. उस ही चेतन्य .सामान्यका विशेष अर्थात् प्रकारा यह सबे
परिचित है । सूक्ष्मदृष्टि द्वारा ज्ञेय सर्वव्यापी चैतन्य भगवान् का यह
प्रकाश है इस वर्णनपरम्परा से वर्णन तो मुख्य रहगया ओर सूच्ष्मद्ृष्टि
के स्थान को प्रदेशमुखी स्थूलद्टि ने ्रडण किया अतः कितने दी अध्या-
त्मप्रयत्नशील सांधुवोंने, विद्ानोंने, इसे इस स्वरूप सें समझ लिया कि
लोकमें व्यापी एक निर्विकार परमेश्वर है जिस की छाया अन्तःकरणों
पर पड़ने से और अन्त:करण का जीवात्मा से संबंध होने से उस जीच
को सुखं दुख का भ्रम हो गया सुख दुख तो अन्तःकरण को दी हाते
हैं। यहाँ तत्त्व समभने केलिये विकल्प कीजिये कि क्या जीव और
अन्तःकरण क्या ये २ पदाधे हैं या वरतेमानर्मं एक रुप हूँ यदि ये २
पदार्थ हैं तब अन्तःकरण ज्ञानमय द्वे या जड़ यदि जड़ हे तो उसमें
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