दान - विचार | Daan - Vichar

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Daan - Vichar by क्षुल्लक ज्ञानसागर जी महाराज - Kshullak Gyaansagar jee maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# दान-विचार # ५ दान नहीं है। तथा जिस दानसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति नहीं होती हो तो वह भी दान नहीं कहछाता है। , इसीलियि दान मोक्षमार्गकी प्रश्न॒तिके पात्रेंमिं ही वितीण किया जाता हैं। समदत्ति; अन्वयदत्ति, ओर पात्रदत्ति इत्यादि जितने प्रकार दानके भेद आगममें चतढाये हैं ( जिनका स्पष्टीकरण संक्षेपमेँ आगे ढिखेंगे ) वे सब प्रकारके दान मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके अवलंवनरूप ही हैं । दान देनेझा मख्य हेतु भोक्षमार्गकी प्रवत्ति है। जिस दानसे ओक्षमार्गकी प्रवत्ति होती हो तो वह सम्यक-दान है अन्यथा वह ददान ह| जि दानसे दृताकी भत्माका केल्याण नदीं होता दै ऐसा दान भी इदान कदछात्ता है। दान देनेसे दाताकी आत्मामें आत्मगुणोंकी विशुद्धि, सन्‍्मागंकी प्राति, परिणामोंकी समुज्वकषा ओर धर्मकी श्रद्वा सातिशय श्द्धिगत हो बही सम्यकू दान दै। कीर्ति या नामकरेलिये दान देना दान नहीं ६ । कीर्तिकेलिये दान देना द्रव्यका निष्फल ज्यापा। है। प्रायः ऐसे दानमें विवेक ओर विचार स्वेथा नही रहता है जिससे दाता अपनी कीर्तिके लिये पापकायों में दान प्रदान करता है, स्वकौ वृद्धिके कायम दान देता दै जिससे दाताकी आत्मामं मिथ्या- त्वकी प्रवत्ति या पापोंकी प्रवत्ति निरंतर होती है। इस सबका फछ यह होता है कि ऐसे दानसे नीति सदाचार ओर सल्मार्गका छोप हो जाता है. और दुराचार, अन्याय एवं मिथ्यात्व बढ जाता है। जिस दानसे मिथ्यात्वकी वृद्धि हो या सल्मार्गकी द्वानि हो मथवा अल्याय और पापोंकी प्रवत्ति हो उस दानका फछ दाताकों अवश्य




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