प्रलय-वीणा | Pralay-Veena
श्रेणी : काव्य / Poetry, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
162
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७ )
सोयी आश्ञाये उठें जाग, रोमों में तन के जगे भाग
युग-युग से कीलित जिव्हा में जग उठे अचानक प्रलय-राग
कवि की राष्टीयता मानवत्ता की गोद में प्रतिष्ठित होना चाहती
हं, ओौर यही आज के गाघी-युग की सच्ची राष्ट्रीयता हूँ :
तुम लो करवठ, हिल उठे धरा, डके अम्बर का रल-जाल
अंगडाई लेने लगे विधवा लहरें सागर के अन्तरत
हो भाज हिमालय अनलालय हिम-बिन्दु बनें थे अग्निखण्ड
धर लो मानवता का विशाल इसके कंधों पर केतुदण्ड
क्षणभंग्र-नह्वर जीवन में अजरामर-अक्षर उठे जाग,
जीवन की कृति-कृति मे जागे सत-शिव-सुन्वर ओो महाभाग !
मेरे अमृतमय ¡ जाग ! जाग ! |
'स्वर्गादपि गरीयसी' जननी-जन्मभूमि की वच्दता मे छीन, महा-
गान के गायक सर्वेशी रवीन्द्रनाथ, नजरुखदस्लाम, इकबाल, चकनस्त्,
नान्हाछाक दरुपतराम, मथिीशरण गुप्तं फे स्वर को उपर उठानेवाल़े
वंतालिको मे ही हमारे इस कवि का अपना स्थान है ।
राष्ट्रीय चेतवा से उद्भूत हिन्दी की अधिकाश कविता जहाँ कविता
का स्थात्र नही प्राप्त कर सकी, वहाँ इस कवि की प्रतिभा देश के
अन्तस्तल में भीतर उतरी हुईं, सहज ही मे कविता के गौरवपुणे आसन
पर अधिष्ठित हुई है।
देश के उत्थान मे लगे हुए युगपुरुषो के प्रति स्वभावत. उरक हृदय
में श्रद्धा है, और अनायास ही नह शद्धा उसके छन्दो मे कविता बनकर फूट
पडी ह । उसकी अनुमति मस्थित्ववदेब (उसी के शब्दो मे) वायुः मे क्या
देखती है, उसे आप भी देखिए :
सवसे प्रथम दए तुमने ही
इसनने कोटि अदत ।
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