एतिहासिक परिशिष्ट [खंड १] [संवाद] | Aitihasik Parishishta [Vol. 1] [ Samvad]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राजप्रश्नीय सूत्र मे मूर्तियों एवं चार तीर्थकरों के नाम सम्बन्धी पाठ, ज्ञाता सूत्र आदि मे णमोत्थुण का पाठ दशाश्रुतस्कध सूत्र की आठवी दशा समाचारी वर्णन मे अन्य वर्णन मिला कर एवं उस समाचारी को बढाकर किया गया कत्पसूत्र आदि कर्ड उदाहरण है। महानिशीथ सूत्र भी ऐसे ही दोषो का मडार है। मांस प्रक्षेप वार्ता-- जिज्ञेश --मासपरक शब्दों के तो अन्य अर्थ हो जाते है ? ज्ञानचन्द --यह एक भ्रमित प्रवाह है। सूत्र रचनाकार गणघरो एवं बहुश्रुतों ने भी मास ओर मस्त्य शब्द का आमिष अर्थ मे आगमो मे प्रयोग किया। मांस के आहार को नरक का कारण बताया है वहां मी मास का ही प्रयोग किया है! एसे स्पष्ट एवं प्रचलित अर्थ वाते मास शब्द का प्रयोग आचार शास्रो मे साधु के भिक्षा तेने के प्रसंग मे गणघर प्रमं करे, यह संमव भी नही कहा जा सकता। क्या उस वनस्पति के लिए उन्हे दूसरा शब्द नही मिलता था? जिससे आचारांग मे उन्हे ऐसा पाठ देना पडा कि-- “मच्छग मसग भीच्चा अद्धियाइ कटए य गहाय अर्थ -- मत्स्य और मांस को खाकर उसमे रहे कांटे और हड्डी को लेजाकर साधु एकांत मे परठ दे। ऐसे भ्रामक और प्रसिद्ध शब्दो का प्रयोग गणघर कृत मानना कोई समझदारी नही है। यदि आगम रचना काल मे मास ओर मत्स्य वनस्पति रूप मे ही प्रयुक्त होते और आमिष भोजन अर्थ मे प्रयुक्त न होते हो तब तो देश काल मे प्रचलित शब्द प्रयोग होना माना मी जा सकता है। ऐसा नही था, यह बात आगम से ही स्पष्ट है। क्योकि इन्ही आगमो मे ^म॑स-मच्छ' शब्द मांस और मछली के लिए प्रयुक्त हुए है। अत ऐसे पाठ कभी विरोधी मानस वालो के द्वारा प्रक्षिप्त होकर प्रचारित होना ही मानना*्चाहिये। मूर्ति णमोत्थुणं प्रक्षेप वार्ता-- जिज्लेश -- मूर्ति, मूर्तिनाम एवं णमोत्थुणं प्रक्षेप कथन का क्या माव है ? झानचन्द --राजप्रश्नीय सूत्र मे १०८ शास्वत मूर्तियों का पाठ यथास्थान है। उनमे किसी भी व्यक्ति का नाम नही कहा गया है। किन्तु स्तूप वर्णन के वाद उसके चौतरफा मूर्तियो का कथन एवं उनका मुख स्तूप की तरफ बताना अर्थात्‌ दक्षिण और पश्चिम मे भी मूर्ति का मुख बताना और उनके ऋषम तथा वर्धमान आदि नाम भी कह देना यह सब स्पष्ट ही प्रक्षिप्त है। क्योकि शास्व॒त मूर्तियां किसी व्यक्ति या वीर्थकर की नही 13




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