बोध कथा काव्य कौमुदी | Bodh Katha Kavya Komudi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
85
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१७
देहश्चितायाम् परलोक माग।
कर्मानुगों गच्छत्ति जीव एकः ॥\
काहे गुमभान करे रतिया! '
विशाल वृक्ष को छाया में पले उप्त छोटे पौषे को उदास देखकर
मै सहज ही पूछ बेठा क्यों क्या बात है ? न तो तुम बादिका के
शून्य पौधे की तरह प्रफुल्लित दिखाई देते हो, न तुंम हंसते हो .
तुपमें उत्साह भी नहीं के बराबर है। आखिर बात वया है ?
जोवित हो उस चिराग की तरह जो जलता है पर रोशनी नहीं
दे रहा है ।
पौधे ने कहा आहिस्ता बोलों बड़ा वृक्ष सुन लेगा तो तुम्हारी
तो कुछ नहीं मेरी हड्डी पसली तोड़ देगा ॥। कहते-कहते पौधा
सिप्तकियां भरकर रोने लगा। उसकी कांखों से अविरल अश्रुधारा
चहते मुझसे ठेखी न गई । मैंते पास जाकर उसकी पीठ पर
हाथ फेरा । उसे सहलाते हुए कहा । धेय॑ रखो हिम्मत न हारो।
एक न एक दिन यह काली घटा भी नष्ट हो जायगी ) जिन्दगी
में फिर से भच्छे दिन आ सकते हैं।
मैंने देखा मेरी तसल्ली से वह सम्भल गया है। मैंने कहा
तुम मुझे अपनी व्यथा बताओ | हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ
भदद कर सक्तु)
मेरे और करीब आ जाओ | पौधे ने धीरे-धीरे कहा मेरी
व्यथा सुनकर क्या करोगे तुम्हें भी वेदना ही होगी और तुम
कर भी क्या सकोगे । पर अपना दिल हलका करे के लिये
तुम्हें ंक्षेप में कुछ बतलाता हूं ।
पोधा वोला यह जो बड़ा घृक्ष देखते हो न ?
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