बोध कथा काव्य कौमुदी | Bodh Katha Kavya Komudi

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Bodh Katha Kavya Komudi by मोतीलाल सुराना - Motilal Surana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ देहश्चितायाम्‌ परलोक माग। कर्मानुगों गच्छत्ति जीव एकः ॥\ काहे गुमभान करे रतिया! ' विशाल वृक्ष को छाया में पले उप्त छोटे पौषे को उदास देखकर मै सहज ही पूछ बेठा क्‍यों क्या बात है ? न तो तुम बादिका के शून्य पौधे की तरह प्रफुल्लित दिखाई देते हो, न तुंम हंसते हो . तुपमें उत्साह भी नहीं के बराबर है। आखिर बात वया है ? जोवित हो उस चिराग की तरह जो जलता है पर रोशनी नहीं दे रहा है । पौधे ने कहा आहिस्ता बोलों बड़ा वृक्ष सुन लेगा तो तुम्हारी तो कुछ नहीं मेरी हड्डी पसली तोड़ देगा ॥। कहते-कहते पौधा सिप्तकियां भरकर रोने लगा। उसकी कांखों से अविरल अश्रुधारा चहते मुझसे ठेखी न गई । मैंते पास जाकर उसकी पीठ पर हाथ फेरा । उसे सहलाते हुए कहा । धेय॑ रखो हिम्मत न हारो। एक न एक दिन यह काली घटा भी नष्ट हो जायगी ) जिन्दगी में फिर से भच्छे दिन आ सकते हैं। मैंने देखा मेरी तसल्‍ली से वह सम्भल गया है। मैंने कहा तुम मुझे अपनी व्यथा बताओ | हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ भदद कर सक्तु) मेरे और करीब आ जाओ | पौधे ने धीरे-धीरे कहा मेरी व्यथा सुनकर क्या करोगे तुम्हें भी वेदना ही होगी और तुम कर भी क्‍या सकोगे । पर अपना दिल हलका करे के लिये तुम्हें ंक्षेप में कुछ बतलाता हूं । पोधा वोला यह जो बड़ा घृक्ष देखते हो न ?




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